दबाव भारत में भी है लेकिन यहां अभी कोई स्पष्ट फैसला सामने नहीं आया। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलने शुरू कर दिए हैं। वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम के अनुमान को मानें तो अभी भी दुनिया के सौ से ज्यादा देश ऐसे हैं जहां कोरोना वायरस के खौफ में सभी शिक्षा संस्थान पूरी तरह से बंद हैं। यानी दुनिया के तकरीबन 60 फीसदी छात्र इस समय पढ़ाई करने नहीं जा पा रहे हैं। दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों ने अपनी शिक्षा संस्थाओं को छात्रों के लिए खोल दिया है। ब्रिटेन ने भी इसकी तैयारी कर ली है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने बयान दिया है कि स्कूलों को खोलना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन डर सभी जगह है और यह सवाल भी हर जगह पूछा जा रहा है कि क्या इस समय स्कूलों को खोलना सुरक्षित है?
कई वैज्ञानिकों को दावा है कि यह पूरी तरह सुरक्षित है। ब्रिटेन ने तो इसके लिए विशेषज्ञों का एक सलाहकार समूह ही बना दिया है जिसके सदस्य और प्रसिद्ध बाल चिकित्सा विशेषज्ञ प्रोफेसर रसेल विनेर का कहना है कि हमारे पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि कोविड-19 स्कूलों से फैल सकता है। वे मानते हैं कि बच्चों को यह महामारी होने का खतरा बहुत कम है लेकिन बच्चों की पढ़ाई छूट जाने से होने वाले खतरे इसके मुकाबले ज्यादा बड़े हैं। लेकिन कुछ लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं स्कूलों के जरिये कोविड-19 नहीं फैल सकता इसके प्रमाण भी तो हमारे पास नहीं हैं।
ऐसी आशंकाएं पूरी तरह से निराधार भी नहीं हैं। कम से कम अमेरिका के कुछ उदाहरण तो यही बता रहे हैं। वहां स्कूलों को खोले हुए अभी दो सप्ताह भी नहीं हुए हैं लेकिन बच्चों, अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों को कोविड-19 होने के कई मामले सामने आ गए हैं। मिसीसिपी शहर का एक स्कूल 27 जुलाई को खुला और एक सप्ताह बीतते-बीतते कुछ बच्चों, कर्मचारियों और अध्यापकों के कोरोना वायरस का शिकार बनने की खबरें आने लगीं। ये संख्या बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन जब उनके संपर्क में आने वाले बच्चों, कर्मचारियों और अध्यापकों को 14 दिन के लिए क्वारंटीन किया गया तो लगभग पूरा स्कूल ही खाली हो गया। स्थानीय अधिकारियों ने यह स्वीकार किया है कि हमने जितना सोचा था समस्या उससे कहीं ज्यादा बड़ी हो गई है।
इन दिनों जब भारत में स्कूल खोलने की बात चल रही है तो ये सारे उदाहरण उन योजनाविदों को निश्चित तौर पर परेशान कर रहे होंगे जिन पर बहुत जल्द ही फैसला लेने का दबाव है। लेकिन वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम की रिपोर्ट पश्चिमी देशों के इन उदाहरणों से एक अलग बात कह रही है। उसमें कहा गया है कि विकासशील देशों में स्कूल खोलने के खतरे ज्यादा हैं क्योंकि इन देशों में आमतौर पर संयुक्त परिवार होते हैं और बच्चे सीधे अपने दादा-दादी व परिवार को बुजुर्गों के संपर्क में रहते हैं। कोरोना वायरस से बच्चों को खतरा कम हो सकता है लेकिन बच्चों के जरिये वह घरों में दस्तक दे सकता है। यानी स्कूल खोलने के चक्कर में वे परिवार भी इसके लपेटे में आ सकते हैं जो अभी तक अपने आप को किसी तरह इस महामारी से बचाए हुए हैं। इन सारी आशंकाओं ने स्कूल खोलने के मामले को बाजार और उद्योग वगैरह खोलने से ज्यादा जटिल बना दिया है।
इसे हम अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया के ज्यादातर स्कूल सोशल डिस्टेंसिंग के लिए नहीं बने। लेकिन भारत में स्कूलों के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जनसंख्या को जो दबाव है वह इस समस्या को कहीं ज्यादा गंभीर बना देता है। अमेरिका में इसके लिए ऑड-ईवन तरीका अपनाया गया है। यानी एक दिन जिस कक्षा के बच्चे आएंगे अगले दिन उनकी छुट्टी होगी और दूसरी कक्षा के बच्चे आएंगे। लेकिन भारत में एक ही कक्षा के भीतर ही अक्सर इतनी भीड़ हो जाती है कि वहां सोशल डिस्टेंसिंग की कल्पना ही व्यर्थ है।
देश के ज्यादातर स्कूल मार्च से ही बंद हैं और इन छह महीनों में हमने ऑनलाइन शिक्षा की सीमाओं को भी अच्छी तरह से समझ लिया है। हमारे यहां ऐसे बच्चों की संख्या भी काफी बड़ी है जिनकी ऑनलाइन शिक्षा के उपकरणों और नेटवर्क तक पहुँच नहीं है। इस दौरान ऑनलाइन शिक्षा एक बड़ी उम्मीद बनकर जरूर उभरी है लेकिन इससे वंचित लोगों का तबका भी स्पष्ट तौर पर हमारे सामने है। जाहिर है कि अगर सिर्फ इसके सहारे रहे तो हम समर्थ और वंचित लोगों की उस खाई को और उभार देंगे जिसे खत्म करने की उम्मीद शिक्षा से बांधी जाती है।
दूसरी ओर चिंता यह भी है कि बच्चों का साल बरबाद न हो। एक पूरी पीढ़ी एक साल पीछे रह जाए यह कोई नहीं चाहता। इसीलिए पूरी दुनिया में जहां स्कूल और कॉलेज नहीं खोले गए वहां इन्हें खोलने की बात चल रही है। भारत में केंद्र सरकार अभी भले ही उहापोह में हो लेकिन कुछ राज्य स्कूल खोलने की तैयारी में जुट गए हैं। असम, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और गोवा ने तो सितंबर से स्कूल खोलने की घोषणा भी कर दी है। हालांकि बेहतर यही होता कि इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई आम सहमति बनाई जाती। शायद केंद्र सरकार को भी समझ में आ रहा होगा कि कोरोना काल में पूरे देश के स्कूल खोलने का मामला, पूरे देश के लिए एक नई शिक्षा नीति बनाने से कहीं ज्यादा कठिन है, वह भी तब जब महामारी सामने खड़ी हो।
- नीलम सिंह