(विचार) जरा सोचिए की एक सुबह आपकी नींद खुले और आपको पता चले की अब न्यूजपेपर, रेडियो और टेलिविजन पर किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति से पहले सरकारी अनुमति जरूरी है। आप बोलेंगे ये भला क्या बात हुई और झट से अपने मोबाइल फोन की ओर कदम बढ़ाएंगे, फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सरकार को कोसने के लिए अपनी उंगलियों को चलाएंगे। लेकिन ये क्या? आपने एक लंबा-चौड़ा टेक्सट टाइप तो कर दिया लेकिन उसे पोस्ट करने पर बार-बार Error का आइकन आ रहा है। आप टीवी आन करेंगे तो सिर्फ और सिर्फ एड आ रहा और वो भी सरकारी कामकाज और अच्छे दिनों के गुणगान वाला। आपको गुस्सा आएगा और परेशान होकर फोन काल लगाएंगे और फिर आपको पता चलेगा कि आपकी बोलने की या कुछ भी व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर पहरा लगा दिया गया है, एक तरह का रोक लगा दिया गया है। आप अपने मन से कुछ भी बोल, लिख नहीं सकते, न ही मोदी जी के खिलाफ न ही अध्यक्ष जी के खिलाफ या सत्ता से संबंधित किसी और जी के खिलाफ। आप कह रहे होंगे कि ये कैसी बात कर रहे हैं आज। वर्तमान दौर में ये सारी बातें काल्पनिक हैं और ऐसा होने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। लेकिन आज से 45 बरस पहले कुछ ऐसा ही घटित हुआ था। उस वक्त को आजाद भारत के इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है।
दिल्ली का बहादुर साह जफर मार्ग, रोजाना कि तरह टक-टक करके चलने वाली टाइपराइटर की आवाज़ से अखबार का दफ्तर गुलजार था। अचानक रात को बिजली चली जाती है या फिर यूं कहे काट दी जाती है। ताकी अखबार निकल ही न पाए। वो रात सामान्य से थोड़ा ज्यादा गर्म थी। अगले दिन सवेरा होते-होते मौसम और राजनीति दोनों का तापमान काफी चढ़ गया। अन्य सुबहों से काफी भिन्न थी ये सुबह। आठ बजे आकाशवाणी पर समाचारों की जगह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना- 'भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।'
14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को दुनिया सो रही थी। तब हिन्दुस्तान अपनी नियति से मिलन कर रहा था। कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई का दूसरा नाम बन चुकी थी। उस कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे पंडित जवाहर लाल नेहरू। आज़ादी के उस दौर के पांच साल के भीतर कांग्रेस का सत्ता से साक्षात्कार हुआ। पहली बार दुनिया का लोकतंत्र बना और लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हुए और नेहरू की रहनुमाई में कांग्रेस जीती। लेकिन नियति से हाथ मिलाने के 28 साल बाद 25 जून 1975 को हरेक नौजवान, आम इंसान, न्याय के इमान, देश के विधान और आजाद हिन्दुस्तान का सबसे मनहूस क्षण आया। जब अपनी सत्ता को बचाने के लिए संवैधानिक मान मर्यादा को कुचलते हुए देश पर आपातकाल थोप दिया गया। सभी मूलभूत अधिकार समाप्त कर दिए गए। समाचार पत्र पर भी पाबंदी लगा दी गई। विपक्षी दलों के प्रमुख नेता नजरबंद कर दिए गए। सभा, जुलूस, प्रदर्शन सभी पर रोक लगा दी गई।
आपातकाल के दौर की पटकथा 1971 में लिखी गई
वैसे तो आपातकाल 1975 में लगाया लगाया गया था। लेकिन इसकी पटकथा की शुरुआत 1971 में ही हो गई थी। 1971 सिर्फ पांचवें लोकसभा चुनाव के लिए ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान युद्ध के लिए भी जाना जाता है। यह साल इंदिरा गांधी के लिए बेहद अहम था। इस वक्त तक कांग्रेस के दो फाड़ हो चुके थे। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सारे पुराने दोस्त उनकी बेटी इंदिरा के खिलाफ थे। इंदिरा गांधी अपने एक नारे 'गरीबी हटाओ' की बदौलत फिर से सत्ता में आ गईं। उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ने लोकसभा की 545 सीटों में से 352 सीटें जीतीं। इस तरह 18 मार्च 1971 के दिन इंदिरा गांधी को तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। दिसंबर 1971 में निर्णायक युद्ध के बाद भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को 'मुक्ति' दिला दी। लेकिन इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया था। लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव पुराना था। केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार जिसका जिसका जिक्र हमने अपने एमआरआई के एक विश्लेषण में विस्तार से किया है। जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुमत से सुनाए गए फैसले में यह कहा था कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है।
गरीबी हटाओ के नारे के दम पर सत्ता में आई इंदिरा गांधी निरंतर बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में नाकाम साबित हो रही थीं जिससे हालात बड़े राजनीतिक प्रतिरोध के रूप में सामने आने लगे। वर्ष 1974 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से शुरू हुआ महंगाई भ्रष्टाचार विरोधी अभियान बड़े बदलाव की शक्ल ले रहा था सभी दल एकजुट हो गए थे। जिसमें भारतीय लोक दल, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी समेत कई क्षेत्रीय दल भी शामिल थे। छात्र युवा आंदोलन के बढ़ते स्वरूप को देखकर और मोरारजी देसाई के अनशन से भयभीत होकर गुजरात विधानसभा को भंग कर नए चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस की भारी पराजय हुई और गांधीवादी नेता बाबू भाई पटेल के नेतृत्व में पहली जनता सरकार बनी। इसी बदलाव की चिंगारियां बिहार में भी भड़क उठी। जहां अब्दुल गफूर के नेतृत्व वाली कांग्रेस बेबस और लाचार दिख रही थी। तब 1942 की क्रांति का नायक 1975 की युवा क्रांति का जननायक बन चुका था।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के एक फैसले ने देश की राजनीति में हड़कंप मचा दिया। इंदिरा गांधी पर अनियमितता के आरोप में राज नारायण द्वारा दायर याचिका पर अदालत ने न केवल इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया बल्कि उन्हें 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। साथ ही उन पर चुनाव के दौरान भारत सरकार के अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को अपना इलेक्शन एजेंट बनाने स्वामी अवैतानंद को ₹50000 घूस देकर रायबरेली से ही उम्मीदवार बनाने, वायुसेना के विमानों का दुरुपयोग करने, डीएम- एसपी की अवैध मदद लेने, मतदाताओं को लुभाने हेतु शराब-कंबल आदि बांटने और निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने जैसे तमाम आरोप लगे थे। फैसले वाले दिन इंदिरा गांधी के आवास पर राजनीतिक गतिविधियां तेज हो चुकी थी। जो भावी राजनीतिक घटनाक्रम की दिशा स्पष्ट कर रही थी। कांग्रेस का जत्थे जस्टिस सिन्हा मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए अदालती फैसले को सीआईए की साजिश भी बता रहे थे। शाम तक मंत्रिमंडल ने एक स्वर से उनके इस्तीफे को नकार दिया। भक्तिकाल के कवि सूरदास ने क्या खूब लिखा था मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै। इन पंत्तियों से एक कदम आगे बढ़ते हुए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा का नारा देकर उस दौर में सियासी चाटुकारिता की किताब में एक नया आयाम जोड़ दिया।
12 जून के बाद समूचा विपक्ष एकजुट हुआ और न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा। पूरा विपक्ष राष्ट्रपति भवन के सामने धरना देकर अपना विरोध दर्ज कर रहा था। देशभर के शहर जुलूस और विरोध प्रदर्शन के गवाह बन चुके थे। 22 जून को दिल्ली में आयोजित रैली को जेपी समेत कई अन्य बड़े नेता संबोधित करने वाले थे। लेकिन उस दौर में सत्ताधारी पार्टी इतना भयभीत हो चुकी थी कि उसने कोलकाता-दिल्ली के बीच की उड़ान ही निरस्त करा दी, जिससे जेपी आने वाले थे। उन दिनों एक या दो उड़ानों का ही संचालन होता था। आखिरकार 25 जून का दिन विरोध सभा के लिए तय हुआ। 25 जून को इंदिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘कंडीशनल स्टे’ दिया गया जिसके तहत वह प्रधानमंत्री बनी रह सकती थीं, पर मताधिकार छीन लिया गया।
'इमरजेंसी- अ पर्सनल हिस्ट्री' के किताब अनुसार, अटल बिहारी वाजपेई की बेटी नमिता भट्टाचार्य जब रैली स्थल की तरफ़ जा रही थीं तो उन्हें कुछ दबी-दबी सी आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने टैक्सी ड्राइवर से पूछा कि ये आवाज़ किसकी है? उसने जवाब दिया कि ये लोगों के कदमों की आवाज़ है। पांच बजते बजते न सिर्फ़ रामलीला मैदान पूरा भर चुका था बल्कि बगल के आसफ़ अली रोड और जवाहरलाल नेहरू मार्ग पर भी लोगों का समुद्र दिखाई दे रहा था। लाखों लोगों के जनसैलाब से खचाखच भरा दिल्ली का रामलीला मैदान। महंगाई और भ्रष्टाचार सत्ता सब की जिम्मेदार, हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई सब के घर में है महंगाई, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जैसे तमाम नारों से दिल्ली का जनजीवन ठहर सा गया था। मुख्य वक्ता के तौर पर जब जेपी संबोधन के लिए आए तब काफी देर तक नारेबाजी होती रही। जेपी ने स्पष्ट शब्दों में इंदिरा के इस्तीफे की मांग की और जन समर्थन के आभाव वाली सरकार के अस्तित्व को मानने से इनकार कर दिया।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार जय प्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के संबंध चाचा और भतीजी वाले थे। लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे को जब जेपी ने प्रखरता से उठाना शुरू किया तो इंदिरा गांधी की एक प्रतिक्रिया से वो संबंध बिगड़ गया। 1 अप्रैल 1974 को भुवनेश्वर में इंदिरा ने बयान दिया कि जो बड़े पूंजीपतियों के पैसे पर पलते हैं, उन्हें भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक़ नहीं है। कहा जाता है कि इस बयान से जेपी बहुत आहत हुए थे। इंदिरा के इस बयान के बाद जेपी ने पंद्रह बीस दिनों तक कोई काम नहीं किया। खेती और अन्य स्रोतों से होने वाली अपनी आमदनी का विवरण जमा किया और प्रेस को दिया और इंदिरा गांधी को भी भेजा।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की स्थिति नाजुक हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उन्हें पद पर बने रहने की इजाजत दे दी थी, लेकिन समूचा विपक्ष सड़कों पर उतर चुका था। आलोचकों के अनुसार इंदिरा गांधी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती थीं और उन्हें अपनी पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं था। इस तनावकारी स्थिति से निपटने के लिए वह संवैधानिक रास्ता तलाश करने लगीं…इसी तलाश में उनके दिमाग में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिदार्थ शंकर रे का नाम आया, जो संविधान के अच्छे जानकार थे और परिस्थितियों को आसानी से समझ सकते थे। इंदिरा गांधी ने अपने विशेष सहायक आरके धवन को, सिदार्थ शंकर रे को तुरंत बुलाने के लिए कहा। 25 जून 1975 की सुबह, सिद्धार्थ शंकर रे दिल्ली के बंग भवन में अपने कमरे में आराम कर रहे थे, उसी समय फ़ोन की घंटी बजी और और आरके धवन ने रे को तुरंत प्रधानमंत्री के निवास स्थान 1, सफदरजंग पहुंचने के लिए कहा। इंदिरा गांधी ने सिद्धार्थ शंकर रे से देश में आपातकाल लगाने के लिए संवैधानिक स्थिति को समझना चाहा। सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा गांधी से कहा: “मुझे संवैधानिक स्थिति समझने का समय दीजिए”… इंदिरा गांधी समय देने के लिए राजी हो गईं और कहा: “जल्द से जल्द वापस आइए”
सिद्धार्थ शंकर रे आपातकाल पर संवैधानिक स्थिति को समझकर दोबारा दोपहर बाद लगभग साढ़े तीन बजे इंदिरा गांधी के निवासस्थान 1, सफदरजंग रोड पहुंचे। यहां उन्होंने इंदिरा गांधी को बताया कि आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने के लिए संविधान की धारा 352 के तहत आपातकाल लगाया जा सकता है। अपनी इसी सलाह के चलते सिद्धार्थ शंकर रे आपातकाल के सूत्रधार भी माने जाते रहे। 25 जून 1975 की रात 11 बजकर 45 मिनट पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने देश पर आपातकाल की घोषणा करने वाले सरकारी पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया और आपातकाल लागू हो गया। रामलीला मैदान में सुबह हुई रैली की खबर देश के लोगों तक न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित सभी बड़े अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। अगले दिन सिर्फ हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेट्समैन ही छप पाए, क्योंकि उनके प्रिंटिंग प्रेस बहादुर शाह जफर मार्ग पर नहीं थे।
गैरकानूनी तरीके से अपनी सत्ता को बचाने के लिए संवैधानिक मान मर्यादा को कुचलते हुए देश पर आपातकाल थोप दिया गया। सभी मूलभूत अधिकार समाप्त कर दिए गए। समाचार पत्र पर भी पाबंदी लगा दी गई। विपक्षी दलों के प्रमुख नेता नजरबंद कर दिया गया। सभा जुलूस प्रदर्शन सभी पर रोक लगा दी गई। राजनीतिक बंदियों की परिवार से मुलाकात तक पर पाबंदी लगा दी गई। अदालतें स्वयं कैद हो चुकी थी, जो जमानत लेने और देने से साफ इनकार कर रही थी। एक लाख से अधिक राजनेताओं- कार्यकर्ताओं को गिरफ्तारी के समय यातनाएं सहनी पड़ी। जेलों से मौत की खबर आ रही थी।
मीसा’ (मेंटेनेन्स ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) लागू कर बिना वारंट गिरफ्तारी की खुली छूट थी। आपातकाल के दौरान मीसा कानून में कई बार संशोधन भी किए गए। तत्कालीनमहाधिवक्ता (अटॉर्नी जनरल) ने तो यह तक कहा था कि ‘आपातकाल के दौरान राज्य किसी को गोली भी मार सकता है जिसका कोई संवैधानिक प्रतिकार नहीं है।’
इंडियन एक्स्प्रेस ने खाली छोड़ा था संपादकीय कॉलम
आपातकाल के उन दिनों में प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया ने भी देश के आम नागरिकों का साथ देने का ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया था। तब की तानाशाह सरकार के आगे उन्होंने भी घुटने टेक दिए थे। लालकृष्ण आडवाणी ने इसका प्रभावशाली रूप से वर्णन करते हुए कहा, "मीडिया तो रेंगने लगी जबकि उन्हें केवल झुकने को कहा गया था। इंडियन एक्सप्रेस, द स्टेट्समैन और मेनस्ट्रीम जैसे कुछ ही मीडिया संस्थान तब अपवादों में से थे जिन्होंने सरकार की नीतियों का विरोध किया। इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने उस वक्त इमरजेंसी का विरोध करने का नयाब तरीका निकाला। 28 जून 1975 को विरोध स्वरूप इंडियन एक्सप्रेस अखबार का संपादकीय खाली छोड़ दिया। सरकार ने अपनी नाराजगी दिखाने के लिए एक्सप्रेस ऑफिस की दो दिन के लिए बिजली काट दी थी। लंदन टाइम्स, डेली टेलीग्राफ, वॉशिंगटन पोस्ट, द लॉस एंजिलिस टाइम्स के रिपोटर्स को देश छोड़ने का आदेश दे दिया गया। वहीं इकोनॉमिस्ट और गार्जियन अखबार के रिपोटर्स ने धमकियां मिलने के बाद देश छोड़ दिया।
इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी के इशारे पर देश में हजारों गिरफ्तारियां हुईं। पत्रकारों को परेशान किया गया। फिल्मों पर जी भर कर सेंसर की कैंची चलाई गई। इन सबके बीच संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम भी चल रहा था। इस कार्यक्रम में प्रमुख था-वयस्क शिक्षा, दहेज प्रथा का खात्मा , पेड़ लगाना, परिवार नियोजन और जाति प्रथा उन्मूलन। लेकिन बाकी तो कहने के लिए थे, इस कार्यक्रम में सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। परिवार नियोजन के लिए अस्पतालों में जबरदस्ती लोगों को पकड़कर, नसबंदी कर दी जाती थी।
जब बाबूजी बॉबी से जीत गए
जनता पार्टी के गठन के 10 दिन बाद बाबू जगजीवन राम ने भी केंद्र सरकार से इस्तीफा दे दिया। बाबू जगजीवन राम ने दिल्ली में 6 मार्च को विशाल जनसभा को संबोधित करने का ऐलान किया। उनकी जनसभा को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने एक दिलचस्प चाल चली।’ रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि बाबू जगजीवन राम की जनसभा से भीड़ को दूर रखने के लिए कांग्रेस ने ठीक जनसभा के वक्त उस दौर की मशहूर रोमांटिक फिल्म ‘बॉबी’ का दूरदर्शन पर प्रसारण करवाना तय किया। 1977 में देश में सिर्फ दूरदर्शन ही हुआ करता था और उसका नियंत्रण पूरी तरह से सरकार के हाथों में ही था। आम दिनों में यदि बॉबी फिल्म टीवी पर दिखाई जा रही होती तो दिल्ली की लगभग आधी आबादी टीवी स्क्रीनों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रहती। लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ। करीब 10 हजार लोगों ने दिल्ली में बाबूजी और जयप्रकाश नारायण को सुना। उस दौर के एक अखबार ने अगले दिन हैडलाइन बनाई कि आज बाबूजी बॉबी से जीत गए!
आपातकाल और पीएम मोदी
आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहम भूमिका निभाई थी। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। सरकार की कोशिश थी कि लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचे। उस कठिन समय में नरेंद्र मोदी और आरएसएस के कुछ प्रचारकों ने सूचना के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी उठा ली। इसके लिए उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। संविधान, कानून, कांग्रेस सरकार की ज्यादतियों के बारे में जानकारी देने वाले साहित्य गुजरात से दूसरे राज्यों के लिए जाने वाली ट्रेनों में रखे गए। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि रेलवे पुलिस बल को संदिग्ध लोगों को गोली मारने का निर्देश दिया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी और अन्य प्रचारकों द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक कारगर रही।
जनवरी 1977 में देश में इमरजेंसी (आपातकाल) लागू हुए डेढ़ वर्ष से अधिक समय हो चुका था। इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी को अचानक ऑल इंडिया रेडियो पर लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया।
16-20 मार्च के बीच देश में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की ऐतिहासिक हार हुई, इंदिरा और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए। 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटा दिया गया और 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में देश में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी।
अस्सी के उस दशक को भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’ कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। आजादी के बाद जेपी ने सड़क से संसद को डिगाया और छात्र आंदोलन ने देश की सत्ता बदल दी। लेकिन सत्ता बदलने के लिए सत्ता से निकलकर सियासी तिकड़मों का आंदोलन भी इसी देश ने देखा। आपातकाल के काले दिनों को याद करते हुए, इसे सिर्फ "दुःस्वप्न या फिर बुरा सपना" भर कहकर इसकी आलोचना करना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि 25 जून निरंकुश ताकतों के खिलाफ तानाशाही भ्रष्टाचार वंशवाद के विरुद्ध संग्राम का दिन है, जिससे सबक लेकर लोकतंत्र की मूल अवधारणा को हम और मजबूर कर मजबूत कर सकें।
-दीपक कौल