बनई दिल्ली । वैश्विक महामारी का तोड़ निकालने के लिए दुनियाभर के वैज्ञानिक इसका टीका (वैक्सीन) बनाने में जुटे हुए हैं। हालांकि इस महामारी से मरने वालों के मुकाबले ठीक होने वालों की संख्या ज्यादा है, इससे यह तो साफ हो जाता है कि कोरोना वायरस होने पर मरने के चांस बहुत कम है, इसलिए लोगों को इसे लेकर ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा कोरोना वायरस के मरीजों को ठीक करने के लिए कुछ देशों के डॉक्टर 100 साल पुरानी पद्धति को भी अपना रहे हैं। इस पद्धति में स्वस्थ्य व्यक्ति के प्लाज्मा से बीमार का इलाज किया जाता है। अब भारत में भी इस थेरेपी से इलाज का ट्रायल शुरु किया जा रहा हैं।
बता दें केरल देश का पहला ऐसा राज्य बनने वाला है जो कोरोना वायरस संक्रमण के इलाज के लिए प्लाज्मा थेरेपी का क्लीनिकल ट्रायल करने जा रहा है। इस थेरेपी में ठीक हो चुके मरीजों के रक्त की एंटीबॉडीज का इस्तेमाल किया जाता है। राज्य के श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के अपनी तरह के इस पहले प्रोजेक्च को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने राज्य सरकार को इसकी सहमति दे दी है।
चीन में प्लाज्मा थैरेपी से ठीक हो चुके है मरीज
अमेरिका के डॉक्टर्स लगभग एक सदी पुराने तरीके से मरीजों का इलाज पहले से ही कर रहे हैं।प्लाज्मा थेरेपी के तहत कोविड-19 की चपेट में आने के बाद ठीक हो चुके मरीजों के रक्त से प्लाज्मा निकालकर बीमार रोगियों को ठीक करने के लिए दिया जा रहा है। अमेरिका और इंग्लैंड में इसे लेकर ट्रायल शुरू हो चुके हैं, वहीं चाइना जहां से ये वायरस फैला है वो भी दावा किया है कि उसने इस प्लाज्मा थैरेपी से मरीजों को ठीक किया है।
सरकारी अधिकारियों ने बताया कि केंद्र सरकार के विज्ञान और तकनीकी विभाग के अंतर्गत आने वाला यह विभाग भारतीय दवा नियंत्रक और आचार समिति की अनुमति मिलने के बाद इस महीने के अंत से ट्रायल शुरू कर सकता है। संस्थान की निदेशक डॉ. आशा किशोर ने कहा, 'इसके क्लीनिकल ट्रायल करने के लिए हमें आईसीएमआर से अनुमति मिल चुकी है। उन्होंने कहा, यह आक्षेपिक प्लाज्मा थेरेपी का एक प्रकार है। इसमें कोरोना से पूरी तरह ठीक होने वाले लोगों के प्लाज्मा का इस्तेमाल किया जाता है।
डाक्टरों के अनुसार एक ठीक हो चुके मरीज से इतना प्लाज्मा मिल जाएगा कि तीन अन्य मरीज ठीक हो सकें। इससे डोनर को कोई नुकसान नहीं होगा, कोरोना से लड़ने के लिए उसके शरीर में पर्याप्त एंटीबॉडीज बनती रहेंगी। डोनर के शरीर से सिर्फ 20% एंटीबॉडीज ली जाएगी जो 2-4 दिनों में ही उसके शरीर में फिर से बन जाएंगी।'
डॉक्टरों का मानना है कि जो भी कोरोना पॉजिटिव अब पूरी तरह ठीक हो चुके हैं, उनका ब्लड एंटीबॉडीज का बड़ा जरिया हो सकता है। ब्लड के प्लाज्मा में एंटीबॉडीज होती हैं। दशकों से इसी प्लाज्मा की एंटीबॉडीज के जरिए संक्रमित बीमारियों को इलाज होता रहा है। इबोला और इनफ्लूएंजा जैसी बीमारी भी इसी प्लाज्मा के जरिए ठीक हुई है। कोरोना वायरस से लड़ रहे मरीज के खून में मौजूद प्लाज्मा में ऐसी एंटी बॉडी विकसित हो सकती हैं जो इस वायरस के खिलाफ जंग में एक हथियार बन रही हैं। इसी के आधार पर वैज्ञानिकों ने प्लाज्मा थेरेपी परीक्षण मरीजों पर शुरू किए हैं। न्यूयॉर्क के डॉक्टर इसकी टेस्टिंग कोरोना के कारण गंभीर स्थिति में पहुंच चुके मरीजों पर करना शुरु कर चुके हैं।
इस प्रक्रिया में सबसे पहले ‘हाइपर इम्यून'लोगों को पहचान की जाती है ये वो ही लोग होते हैं जो पहले इस वायरस की चपेट में आने के बाद ठीक हो चुके हैं, या फिर ऐसे व्यक्ति जिनका शरीर वायरस की चपेट में नहीं आ रहा। ठीक हो चुके लोगों के प्लाज्मा को कोन्वल्सेंट प्लाज्मा कहा जाता है। उनके श्वेत कणों से फ्रेक्शनेशन प्रक्रिया के जरिए प्लाज्मा अलग किए जाते हैं। वहीं संपूर्ण रक्त से इन प्लाज्मा को अलग करने के लिए अपेरेसिस मशीन का प्रयोग होता है। इसके बाद इस कोन्वल्सेंट प्लाज्मा को गंभीर रूप से कोरोना वायरस से संक्रमित बीमार के शरीर में ट्रांसफर किया जाता है। इससे बीमार का शरीर भी रक्त में वायरस से लड़ने वाली एंटीबॉडी बनाने लगता है। उसके लिए वायरस से लड़ना आसान हो जाता है और तबियत सुधरने लगती है।
बता दें कि यह पद्धति 100 साल पुरानी है, वर्ष 1918 में फ्लू, चेचक और निमोनिया सहित कई अन्य तरह के संक्रमण को ठीक करने में यह तरीका कारगर साबित हुआ था। चूंकि अभी कोरोना वायरस की वैक्सीन नहीं है इसलिए डॉक्टर्स इस पद्धति को भी आजमा कर देख लेना चाहते हैं।