बिजली के खेल को समझने के लिए विद्युत अधिनियम 2003 की उस भावना को समझने की जरूरत है जो बुनियादी तौर पर निजीकरण की वकालत करती है। भारतीय विद्युत अधिनियम 1910 और इंडियन इलेक्ट्रिक एक्ट 1948 बिजली क्षेत्र में किसी भी निजी भागीदारी को निषिद्ध करता था।
संपादकीय । देश भर में पिछले 17 वर्षों से बिजली घोटाला हो रहा है। करीब 10 लाख करोड़ का सरकारी घाटा और इतनी राशि की बंदरबांट मौजूदा विद्युत अधिनियम 2003 के क्रियान्वयन से की जा चुकी है। देश की सियासत में टेलीकॉम घोटाले की खूब चर्चा होती है लेकिन इसी तर्ज पर हुए इससे चार गुना बड़े बिजली घोटाले की कहीं चर्चा नहीं हो रही है। विडम्बना यह है कि मौजूदा विद्युत कानून को एक बार फिर बदला जा रहा है और सियासी दल इस पर चुप है। क्योंकि सभी राज्यों में हुए इस घोटाले में किसी का दामन धवल नहीं है। कमाल की बात यह है कि मुफ्त बिजली से सरकारें तो बनाईं जा रही हैं लेकिन मुल्क के संसाधन किस तरह कॉरपोरेट की लूट के लिए खोल दिये गए हैं इस पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता है।
उप्र विद्युत निगम वर्ष 2000 में 77 करोड़ के घाटे में था और आज यह आंकड़ा 83 हजार करोड़ पहुँच गया है। बिहार में 47 हजार करोड़ है। मप्र में सरकार को अकसर उधार देने वाला बोर्ड 52 हजार करोड़ के घाटे में है। छत्तीसगढ़, ओडिशा, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक हर राज्य में हजारों करोड़ से नीचे नहीं है यह आंकड़ा। देश भर के सभी डिस्कॉम घाटे को जोड़ दें तो यह करीब 10 लाख करोड़ के आसपास है। विद्युत अधिनियम 2003 में संशोधन के मौजूदा प्रस्ताव का देश भर में विरोध हो रहा है। सभी राज्यों के बिजली इंजीनियर्स ने एक जुट होकर सरकार से न केवल इन संशोधन को वापिस लेने बल्कि सभी विद्युत कम्पनियों को भंग कर पुरानी निगम/बोर्ड व्यवस्था बहाल करने की मांग भी दोहराई है।
इस प्रस्ताव के देशव्यापी विरोध का बुनियादी आधार सन् 2003 के अधिनियम की व्यवहारिक विफलता ही है जिसके अनुपालन में तत्कालीन बिजली बोर्डों को विघटित करके कम्पनियों में बदला गया। ताकि उत्पादन, पारेषण और वितरण को व्यावसायिक और उपभोक्ता अधिकारों के मानकों पर व्यवस्थित किया जाए। लेकिन आज ये कम्पनीकरण प्रयोग पूरी तरह से असफल हो गया है। इसके मूल में अफ़सरशाही को देखा जाता है जिसने कम्पनीकरण के नाम पर स्थापना और प्रशासनिक खर्चे तो बेतहाशा बढ़ा लिए लेकिन जिस टेक्नोक्रेटिक और प्रोफेशनल एप्रोच की आवश्यकता थी उसे अमल में नहीं लाया। पहले राज्यों में रेलवे की तर्ज पर एक स्वायत्तशासी निगम/बोर्ड होता था। अब वितरण, पारेषण, उत्पादन, मैनेजमेंट, ट्रेडिंग होल्डिंग कम्पनियां बनाकर सभी की कमान आईएएस अफसरों को दे दी गयी जिन्होंने सरकारी महकमों की तरह ही इन कम्पनियों को चलाया है। कम्पनीकरण के पीछे की सोच बिजली वितरण को विशुद्ध व्यावसायिक औऱ प्रतिस्पर्धी धरातल देना था ताकि उपभोक्ताओं को बेहतर विकल्प और सस्ती सुविधाएं सुनिश्चित हों। अनुभव इसके उलट कहानी कहते हैं एक तो देश के सभी सरकारी डिस्कॉम दिवाले की कगार पर हैं और दूसरी तरफ निजी बिजली कम्पनियां करोड़ों का मुनाफा कमा रही हैं।
बिजली के खेल को समझने के लिए हमें विद्युत अधिनियम 2003 की उस भावना को समझने की जरूरत है जो बुनियादी तौर पर निजीकरण की वकालत करती है। भारतीय विद्युत अधिनियम 1910 और इंडियन इलेक्ट्रिक एक्ट 1948 बिजली क्षेत्र में किसी भी निजी भागीदारी को निषिद्ध करता था। एक लंबे कॉरपोरेट दबाव के बाद देश में 2003 का एक्ट पारित कर निजीकरण की नींव रखी गई। इसके लिए नीतिगत निर्णय हुआ कि बिजली क्षेत्र को निजी कम्पनियों के हवाले किया जाएगा। नया फ़्रेंचाइजी मॉडल ईजाद किया गया। शर्त रखी गई कि बड़े-बड़े बिजली बोर्डों के टुकड़े किये जायें और पूरी व्यवस्था को सरकारी धन से दुरुस्त किया जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे कोई जर्जर मकान है उसे बेचने के लिए उसकी मरम्मत कराई जाती है। बोर्डों के टुकड़े कम्पनियों में इसलिये किये गए ताकि बेहतर कमाई वाले इलाके चिन्हित हो सकें। उदाहरण के लिए मप्र में सम्पन्न क्षेत्र मालवा की कम्पनी पश्चिम क्षेत्र बनाई गई उसका मुख्यालय इंदौर कर दिया गया। यूपी को सात वितरण कम्पनियों में बांट दिया गया। पहले केंद्रीय मदद, विश्वबैंक, जापान बैंक, एडीबी जैसे वितीय संस्थानों से ऋण लेकर बुनियादी ढांचा सुदृढ़ीकरण पर हजारों करोड़ खर्च किये गए। एपीडीआरपी, आरईसी, सिस्टम स्ट्रेंथनिंग, जेबीआईसी, उदय, राजीव गांधी विद्युतीकरण, दीनदयाल ग्राम ज्योति, एडीबी, आरएपीडीआरपी, फीडर सेपरेशन, उजाला जैसी भारी भरकम बजट वाली योजनाओं के जरिये करीब 8 लाख करोड़ रुपये पिछले 15 साल में इंफ्रस्ट्रक्चर पर खर्च किये जा चुके हैं। यह राशि राज्य और केंद्र ने अलग-अलग एजेंसियों के जरिये व्यय की।
दावा किया गया कि ढांचागत सुधार के बगैर बिजली क्षेत्र में कम्पनीमूलक प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाएगी। इस काम के लिए भी निजी कम्पनियों को चुना गया। 2003 के कानून से पहले सभी बिजली निर्माण कार्य बोर्डों द्वारा सीमित ठेकेदारी के जरिये खुद किये जाते थे इसके लिए एसटीसी विंग हुआ करती थी। लेकिन 50 साल के सरकारी सिस्टम को हटाकर निजी कम्पनियों को हजारों करोड़ के टेंडर जारी किये। जो नेटवर्क सरकारी निगमों ने 50 साल में खड़ा किया। उससे दोगुनी 33 केवी, 11 केवी, एचटी, लाइनें, पावर और वितरण ट्रांसफारमर गांव और कस्बों में खड़े कर दिए गए। शहरी इलाकों में हजारों करोड़ के टेंडर पर रिनोवेशन, अपग्रेडेशन क्षमता वृद्धि के काम कराये गए। ये सभी टेंडर ग्लोबल और सेंट्रलाइज्ड प्रक्रिया अपना कर बुलाये गए जिनके सर्वाधिकार आईएएस सीएमडीयों ने अपने पास रखे। विसंगति यह रही कि इतना बड़ा नेटवर्क एक साथ खड़ा किया जाता रहा और इसके मेंटेनेंस के लिए कोई मानव संसाधन भर्ती नहीं किया गया। हजारों करोड़ की धनराशि के टेंडर बड़ी-बड़ी कम्पनियों को उनकी सुविधा के अनुरूप बनाए गए बिड और टेक्निकल अहर्ताओं को प्रयोजित कर अवार्ड किये गए। ठीक वैसे ही जैसे टेलीकॉम के लाइसेंस बगैर पूर्व अनुभव के बांटे गए।
मसलन गोदरेज और ऐसी ही तमाम कम्पनियों ने मप्र, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात में हजारों करोड़ के ग्रामीण विद्युतीकरण और शहरी सुधार के टेंडर हासिल किए गए। जमीनी हकीकत यह रही कि टेक्निकल सुपरविजन का काम भी निजी कन्सल्टिंग फर्मों के हवाले रहा नतीजतन देश भर में किसी भी टेंडर के अनुरूप मानक काम नहीं हो सके। कम्पनियां फायदे के काम कर भाग गईं। खास बात यह है कि कम्पनियों को ये टेंडर पांच साल में लाइन लॉस यानी विद्युत चोरी को 15 फीसदी पर लाने की शर्त पर मिले थे लेकिन एक भी कम्पनी इस पर खरी नहीं उतरी। किसी डिस्कॉम का लाइन लॉस आज 45 फीसदी से कम नहीं है। जाहिर है करोड़ों के यह ढांचागत काम आईएएस अफसरों एवं बड़ी कम्पनियों के गठजोड़ को भेंट चढ़ डिस्कॉम के दिवाले निकाल गए।
दूसरा पक्ष कम्पनियों के प्रशासनिक खर्चे बढ़ने का भी है। निगमों में कार्मिक, वाणिज्य सदस्य पूरे राज्य के काम देखते थे लेकिन कम्पनी कल्चर के नाम पर हर अधीक्षण यंत्री कार्यालय में एचआर, आईटी मैनेजर, सीए, अकाउंट ऑफिसर के अलावा बड़ी संख्या में नॉन टेक्नीकल लोगों की भर्तियां कर ली गईं। इंजीनियर के पद नाम बदल कर प्रबंधक, महाप्रबंधक कर दिए और हर वितरण केंद्र पर लग्जरी गाड़ियां किराए पर उठा ली गईं। बिलिंग सॉफ्टवेयर के नाम पर करोड़ों के घोटाले हुए। कॉल सेंटर, कलेक्शन सेंटर, फ्यूज कॉल रिस्पॉन्स जैसे कामों पर भी बेतहाशा धन खर्च हुआ। ये सब कर्ज के बोझ में ही हुआ ताकि निजी कम्पनियों के लिये वितरण व्यवस्था बढ़िया बनाकर दी जा सके। महंगी बिजली खरीदी के अनुबंध भी निजी कम्पनियों से ऐसी शर्तों पर हुए हैं कि डिस्कॉम को दिवालिया होने से कोई भी नहीं बचा पाया। उधर सरकारों ने चुनावी खैरात के लिये भी बिजली को ही चुना।
अब सरकार एक बार फिर विद्युत अधिनियम 2003 में संशोधन करने जा रही है जो मूलतः निजी कम्पनियों के हितों की ओर झुका है। बिजली मंत्री आरके सिंह ने लोकसभा में इसे उपभोक्ताओं के हितों के अनुकूल बताया है लेकिन बुनियादी रूप से यह गांव, गरीब और किसानों के विरुद्ध इसलिये है क्योंकि इसके तहत निजी कम्पनियां मुनाफे वाले बड़े उपभोक्ताओं को बिजली देकर टोरंट पावर आगरा की तरह पैसा बनायेंगी और सरकारी कम्पनी ग्रामीण क्षेत्रों, किसानों, गरीबों और आम उपभोक्ताओं को बिजली देगी जिससे वह केवल घाटे में ही चलेगी। क्रॉस सब्सिडी खत्म होने से उपभोक्ताओं को महंगी बिजली लेनी पड़ेगी। नोयडा, आगरा, दिल्ली की कम्पनियों के मुनाफे इस आशंका को प्रमाणित करते हैं।
बेहतर होगा सरकार बिजली एक्ट में प्रतिगामी संशोधन वापिस ले और देश भर में बिजली बोर्डों की व्यवस्था को बहाल करे। सरकारी बिजली ग्रहों की क्षमता वृद्धि के लिए एक बेल आउट पैकेज जारी किया जाए। बिजली को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। प्रबंधन से अफ़सरशाही का दखल भी खत्म किया जाए। वस्तुतः बिजली क्षेत्र में निजी कम्पनियों का दावा कानूनी तौर पर खारिज हो चुका है। सबसे पहले यह प्रयोग ओडिशा में हुआ था जहां रिलायंस को पूरा सिस्टम ठेके पर उठाया गया था। कम्पनी वहां काम नहीं कर पाई। सरकार ने जुर्माना लगाया तो मामला कोर्ट में गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी रिलायंस हार गई। इसके बावजूद मौजूदा संसद में निजीकरण को बढ़ाने वाले संशोधन लंबित हैं।