आज विश्व की प्राचीनतम नदी सभ्यताओं में से एक नर्मदा घाटी की सभ्यता का उल्लेख कम से कमतर ही किया जाता है; यह दुखद तो है किंतु ऐसा केवल और केवल हमारी उदासीनता और पश्चिमी षड्यंत्रों के परिणाम स्वरूप ही हुआ है।
लेख । हाल ही के दशकों में किये अन्वेषणों व खुदाइयों से नर्मदा घाटी का एक नया स्वरूप उभर कर आया है। नर्मदा घाटी से ऐसी बहुत सी शिलाएं, शिलालेख, निर्मितियां, भित्ति चित्र, तैल चित्र आदि मिले हैं जिनसे भारतीय सभ्यता के इतिहास को नए आयाम प्राप्त होते हैं। नर्मदा घाटी की खुदाई से मिले तथ्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबैठका में पाए गए 25 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा मेहरगढ़ के अलावा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि, विश्व के सर्वाधिक व प्राचीनतम आदिमानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। विश्व के सर्वाधिक चर्चित, सिद्ध, स्थापित व विज्ञान आधारित वैदिक या सनातन धर्म के संदर्भ में भी तथ्य मिलते हैं कि यहीं से मानव ने अन्य स्थानों पर बसाहट करने व वैदिक धर्म के विस्तार का कार्य किया था।
एतिहासिक विषयों के शोध में सामान्य तौर पर वैश्विक मान्यता यह रही है कि 3500 वर्ष पूर्व जीवित सभ्यताओं को मापदंड मानकर ही मानव इतिहास और समाज का विश्लेषण होता है। वस्तुतः यह सिद्धांत या विश्लेषण केवल और केवल ईसाई धर्म को स्थापित करने वाला था। इस भ्रान्ति को स्थापित करने हेतु यूरोपीय इतिहासकारों ने ऐसे कई तथ्य नकारे जो प्राचीन भारत और चीन के इतिहास को महान बताते हैं और ईसा बाद के समाज से कहीं ज्यादा उन्हें सभ्य सिद्ध करते हैं। पृथ्वी की प्राचीन सभ्यताओं की बात करें तो धरती के पश्चिमी छोर पर रोम ग्रीस और मिस्र देश की सभ्यताओं के नाम लिए जाते हैं तो पूर्वी छोर पर चीन का नाम लिया जाता है। यह विडंबना ही रही कि मध्य में स्थित भारत को अनुसंधानों में क्षीण चर्चा के साथ ही लगभग नकार कर आगे बढ़ जाया जाता है। इसके पीछे एक ही पूर्वाग्रह है कि यदि भारतीय सभ्यता का इतिहास अपने मूल व सिद्ध स्वरूप में विश्व के समक्ष आया तो पश्चिमी देशों के समाज और धर्म के सारे मापदंड स्खलित होने लगते हैं।
वैश्विक इतिहास के संदर्भ में अब यह स्थापित तथ्य है कि ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबिलोनिया, 2000-250 ईसा पूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं विद्यमान थीं व उक्त सभी सभ्यताओं से बहुत पूर्व महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। नर्मदा घाटी की खुदाई में तथ्य अपनी भौतिक संरचनाओं के साथ सामने आ गए हैं और यह स्पष्ट उद्घोषित कर रहे हैं कि 3500 ईसा पूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी।
आज विश्व की प्राचीनतम नदी सभ्यताओं में से एक नर्मदा घाटी की सभ्यता का उल्लेख कम से कमतर ही किया जाता है; यह दुखद तो है किंतु ऐसा केवल और केवल हमारी उदासीनता और पश्चिमी षड्यंत्रों के परिणाम स्वरूप ही हुआ है। पुरात्ववेत्ताओं के अनुसार यहां भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता के अवशेष पाए गए हैं। आश्चर्य कि यहां डायनासोर के अंडे भी पाए गए हैं। आज विश्व भर में माँ नर्मदा को प्राचीनतम नदी की मान्यता दी जाती है। यह दुखद ही है कि इस नदी सभ्यता पर कोई योजनाबद्ध व दीर्घ शोध, अध्ययन, खनन का कार्य अब तक नहीं हुआ है। पौराणिक ग्रंथों में जिस “रेवाखंडे” शब्द का गुह्य किंतु सहज प्रयोग स्थान स्थान पर मिलता है वह हमसे इस रेवा तट के महात्मय को ही प्रकट करता है। नर्मदा घाटी के प्राचीन नगरों के रूप में महिष्मती (महेश्वर), नेमावर, हतोदक, त्रिपुरी, नंदीनगर, भृगुकच्छ (भड़ोच) आदि ऐसे कई प्राचीन नगर हैं जहां किए गए उत्खनन से उनके 2200 वर्ष पुराने होने के निर्विवाद प्रमाण प्राप्त हुये हैं। जबलपुर से लेकर सीहोर, नर्मदापुर (होशंगाबाद), बड़वानी, धार, खंडवा, खरगोन, हरसूद आदि तक किए गए और लगातार जारी उत्खनन कार्यों ने ऐसे अनेक पुराकालीन रहस्यों को उजागर किया है। डॉ. शशिकांत भट्ट की पुस्तक नर्मदा वैली: कल्चर एंड सिविलाइजेशन में, नर्मदा घाटी सभ्यता के विषय में विस्तार से उल्लेख मिलता है। भट्ट के अनुसार अनुसार नर्मदा किनारे मानव खोपड़ी का पांच से छः लाख वर्ष पुराना जीवाश्म मिला है जो सनातन धर्म के सर्वाधिक प्राचीन धर्म होने के अकाट्य प्रमाण को वैश्विक पटल पर रखता है। यहां डायनासोर के अंडों के जीवाश्म पाए गए तो दक्षिण एशिया में सबसे विशालतम वृषभ (भैंस) के जीवाश्म भी मिले हैं। एकेडेमी ऑफ इंडियन न्यूमिस्मेटिक्स एंड सिगिलोग्राफी, इंदौर ने नर्मदा घाटी की संस्कृति व सभ्यता पर केंद्रित देश-विदेश के विद्वानों के 70 शोध पत्रों पर आधारित एक विशेषांक प्रकाशित किया था, जो इस प्राचीन सभ्यता की खोज, विश्लेषणों व उससे जुड़ी चुनौतियों को प्रस्तुत करता है।
नर्मदा घाटी सभ्यता के सर्वाधिक सहज उपलब्ध प्रमाण के रूप में ज्वलंत उदाहरण भोपाल के समीप, रातापानी के वनों में स्थित भीम बैठका की गुफाओं का है। कहा जाता है कि महाभारत काल के भीमसेन यहां विश्राम करते थे। यह चर्चित, सुंदर व सुरम्य पुरातात्विक स्थल अपने में समेटे आदिमानव द्वारा बनाए गए, पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के शैलचित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध है। इन प्राचीन स्थानों की श्रृंखला में ही भेड़ाघाट, नेमावर, हरदा, ओंकारेश्वर, महेश्वर, होशंगाबाद, बावनगजा, अंगारेश्वर, शूलपाणि आदि स्थानों पर सैकड़ों पुरातात्विक प्रमाण सहज रूप में दिखाई देते रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में तो अनेकों प्रागेतिहासिक गुफाएं हैं। इनमें से एक गुफा में 10 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र मिले हैं। यहां मिले शैलचित्रों में एक चित्र में उड़नतश्तरी व उससे बाहर निकलते अन्तरिक्ष मानव (एलियन) का चित्र भी मिला है जो उस समय के उन्नत अन्तरिक्ष शास्त्र का परिचय देता है। भीमबैठका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने अगस्त 1990 में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। इसके पश्चात 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। यहां भारत में मानव जीवन के प्राचीनतम चिन्ह हैं जो कि अब, वस्तुतः समूचे विश्व के मानव जीवन के प्राचीनतम चिन्ह सिद्ध हो रहे हैं। इनकी खोज वर्ष 1957-1958 में डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी। यहां 750 शैलाश्रय हैं जिनमें 500 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं।
पूर्व पाषाणकाल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का सक्रिय केंद्र रहा था। इन चित्रों से पता चलता है कि ये अलग-अलग समय में अलग-अलग लोगों ने बनाए होंगे। इनके काल की गणना कार्बन डेटिंग सिस्टम से की गई है जिनमें अलग-अलग स्थानों पर पूर्व पाषाणकाल से लेकर मध्यकाल तक की चित्रकारी मिलती है। इसकी कार्बन डेटिंग से पता चला है कि इनमें से कुछ चित्र तो लगभग 25 से 35 हजार वर्ष पुराने हैं। इन चित्रों में शिकार, नृत्य, गीत, घोड़े व हाथी की सवारी, लड़ते हुए पशु, श्रृंगार, मुखौटे और घरेलू जीवन शैली का बड़ा ही शानदार चित्रण किया गया है। इसके अलावा वन में रहने वाले बाघ, शेर से लेकर जंगली सूअर, भैंसा, हाथी, हिरण, घोड़ा, कुत्ता, बंदर, छिपकली व बिच्छू तक चित्रित हैं। चित्रों में प्रयोग किए गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ, लाल और सफेद हैं और कहीं-कहीं पीला और हरे रंग का भी प्रयोग हुआ है। इन चित्रों को विभिन्न रंगों के प्रयोग से बनाया गया है। इन रंगों में चित्रों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने हेतु वैज्ञानिक रीति से विभिन्न पदार्थों जैसे मैंगनीज, हैमेटाइट, नरम लाल पत्थर व लकड़ी के कोयले के मिश्रण आदि का बड़ा ही कुशल, सटीक व सिद्धहस्त उपयोग किया गया है। इन रंगों में पशुओं की चर्बी व पत्तियों का अर्क भी मिला दिया जाता था। आज भी ये रंग वैसे के वैसे अक्षुण्ण ही हैं। आज विश्व भर के पुराविदों के लिए नर्मदा घाटी तो जैसे सोने की खान है। किंतु वैश्विक राजनीति व उसके पूर्वाग्रहों के चलते नर्मदा घाटी सभ्यता को वैश्विक स्तर पर अब भी वैसी मान्यता व स्थान नहीं मिल पाई है जैसी कि उसे मिलनी चाहिए। एकेडेमी ऑफ इंडियन न्यूमिस्मेटिक्स एंड सिगिलोग्राफी, इंदौर ने हाल ही में नर्मदा घाटी की संस्कृति व सभ्यता पर केंद्रित एक विशेषांक निकाला है, जो इस प्राचीन सभ्यता की खोज और उससे जुड़ी चुनौतियों को रेखांकित करता है। देश-विदेश के विद्वानों के 70 शोध पत्रों को समेटे यह विशेषांक एक अनूठा प्रयास है।
माँ नर्मदा अपने में ज्ञान का विशाल भंडार समाए हुए हैं। नदियों में श्रद्धालुओं द्वारा सिक्कों के समर्पण की प्राचीन परंपरा ने नर्मदा के तट पर विकसित कई नगर-राज्यों के अस्तित्व के प्रमाण छोड़े हैं, जिनका अध्ययन बड़ा ही रुचिकर है। इनमें से बहुत नगरीय केंद्र से लुप्त हो चुके हैं या नाम, स्वरूप परिवर्तित कर चुके हैं। 2200 वर्ष प्राचीन नगर महिष्मती, हतोदक, त्रिपुरी, नंदीनगर आदि का अस्तित्व अब हमें ज्ञात अकाट्य तथ्यों के आधार पर मिल रहा है।
इस संदर्भ में डॉ. शशिकांत भट्ट की पुस्तक, नर्मदा वैली: कल्चर एंड सिविलाइजेशन बड़ी ही प्रासंगिक है। इसका प्रथम खंड मुद्राशास्त्र व मुद्रिकाशास्त्र पर केंद्रित है। इसमें 16 शोध आलेख हैं, जो इस क्षेत्र में पाई गईं मुद्राओं एवं मुद्रिकाओं का विवेचन करते हैं। द्वितीय खंड में पुरातत्वीय सर्वेक्षण व उत्खनन संबंधी 42 शोध लेख हैं। तृतीय खंड में शैलचित्रों तथा अभिलेख शास्त्र संबंधी लेख हैं व चतुर्थ खंड में जीवाश्म विज्ञान से जुड़े शोध लेख हैं।
माँ नर्मदा किनारे बसी इस प्राचीनतम मानव सभ्यता में जो अवशेष आदि मिल रहे हैं उनसे पता चलता है कि यह सभ्यता मोहनजोदाड़ो व हड़प्पा की अपेक्षा कहीं बहुत अधिक विकसित सभ्यता थी। यहां बसने वाले आदिमानव किसी किसी ग्राम देवता, वन देवता या यक्ष आदि का नहीं बल्कि प्रभु श्रीराम का उपासक था। सतपुड़ा वनों में प्राप्त सभ्यता के अवशेषों में राम-रावण युद्ध के सैंकड़ों शैलचित्र मिले हैं। बजरंगबली के वनवासी रूप के शैलचित्रों के साथ देवी काली की प्रतिमा भी मिली हैं।
एतिहासिक दृष्टि से देखें तो आज की सर्वाधिक व प्रासंगिक आवश्यकता यह है कि माँ नर्मदा तटों पर बसे सभी प्राचीन नगरीय व वन केन्द्रों पर विधिवत, वैज्ञानिक रीती नीति से खुदाई कार्य को पूर्ण किया जाए। माँ नर्मदा तटों से प्राप्त प्रागेतिहासिक प्रमाणों का वैज्ञानिक अध्ययन हो व इनसे प्राप्त तथ्यों को पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों का रूप दिया जाए। विश्व भर के प्रसिद्ध इतिहासकारों, पुरातत्वविदों के सम्मेलन आयोजित कर ये सभी पुरावशेष उनके समक्ष रखे जाएँ व माँ नर्मदा घाटी सभ्यता को विश्व स्तर पर मान्यता दिलाई जाए।
-डॉ. प्रवीण गुगनानी