‘’मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ ‘’
भीड़ भरी सूनी नगरी में,
निपट अकेली डोल रही हूँ
पास नहीं तुम मेरे फिर भी,
मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ।
रिश्तों की पहचान नजर को
और अभी तड़पाएगा,
पतझड़ का बेमानी मौसम
कैसे फूल खिलाएगा,
क्या कहें अब जिन्दगी में
क्या बचा रह जाएगा,
धज्जियों में ख्वाहिशों का
सिलसिला रह जाएगा,
पत्थर वाली चारदरी में
भीगा ह्रदय टटोल रही हूँ।
पास नहीं तुम मेरे फिर भी,
मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ।
यहाँ बहुत परहेज है सबको,
रूदन पर ये कान न देते
बस पीड़ा हीं देते हैं सब,
एक अदद मुस्कान न देते
जो इनका बस चल पाए तो
चैन सुकून भी छीन हीं लेंगे,
सब्र की माला को मरोड़कर
एक-एक मोती बीन हीं लेंगे,
नदी हूँ जाने कब से
खारे जल में मीठा घोल रही हूँ.
पास नहीं तुम मेरे फिर भी,
मैं तुमसे हीं बोल रही हूँ।
कंचन पाठक
कवयित्री, लेखिका
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं