तीन दशक से जिस नए मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय तबके का जन्म हुआ है उसके लिये इस सेलिब्रिटी रैंकिंग का बड़ा महत्व है। यह सेलिब्रिटी रैंकिंग भारत गणराज्य में इंडिया और हिंदुस्तान के विभाजन को स्पष्ट करते सामाजिक, आर्थिक विकास की कहानी भी है।
-मध्य प्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर जिलों के करीब पांच सौ से अधिक गांवों में "हलमा" (एक वनवासी लोकप्रथा) के जरिये जल संरक्षण और सहकार आधारित ग्राम्य विकास की अद्भुत कहानी लिखने वाले पद्मश्री महेश शर्मा।
-चित्रकूट और सतना सहित आधे बघेलखंड में ग्राम्य विकास, नवदम्पति मिशन और पुलिस हस्तक्षेप से मुक्त ग्राम्यसमाज व्यवस्था की नींव रखने वाले नानाजी देशमुख।
-जल जंगल, जमीन और जानवर के महत्व को समझ कर स्थानीय गरीबी के समेकित प्रक्षालन के लिए काम करने वाले महाराष्ट्र के धुले जिले के चेतराम पवार।
ऐसे पारंपरिक सेवा और लोककल्याण के अनगिनत कामों में भारत के हजारों लोग निस्वार्थ भाव से लगे हैं। लेकिन इन्हें आज का भारतीय समाज आदर्श नहीं मान रहा है। मीडिया इन्हें जगह नहीं देता है। अगर देता भी है तो परिस्थिति जन्य। ऐसे प्रकल्पों में धन और कारपोरेट की ताकत नहीं है। वे अंग्रेजी के बड़े अखबारों के पहले पेज के विज्ञापन के अपीलीय चेहरे जो नहीं। यही कारण है कि हाल ही में फोर्ब्स के 100 प्रतिमान (आइकॉन) भारतीय चेहरों में एक भी सामाजिक क्षेत्र का व्यक्ति नहीं है। धन कमाने और मीडिया में मिले कवरेज को आधार बनाकर जिन 100 भारतीय आइकॉन को फोर्ब्स जैसी पत्रिका ने इस वर्ष जारी किया है उसमें सबसे ऊपर हैं विराट कोहली। नंबर दो पर अक्षय कुमार, फिर आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोण से लेकर अनुष्का शर्मा, महेंद्र सिंह धोनी, माधुरी दीक्षित, कैटरीना कैफ, प्रियंका चोपड़ा, ऋषभ पंत, के.आर. राहुल और सोनाक्षी सिन्हा के नाम शामिल हैं।
सेलिब्रिटीज की यह सूची दुनिया भर में हर साल जारी होती है। भारत के लिए इसका महत्व वैसे तो आम आदमी के सरोकार से समझें तो कोई खास नहीं है क्योंकि कोई कितना कमाता है और कितना मीडिया में जगह हासिल करता है इससे उस बहुसंख्यक भारतीय को कोई लेना-देना नहीं है जो पेज थ्री और मेट्रो कल्चर से परे मेहनत मजदूरी कर अपने लिये दो जून की रोटी ही बमुश्किल जुटा पाता है। लेकिन भारत में पिछले तीन दशक से जिस नए मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय तबके का जन्म हुआ है उसके लिये इस सेलिब्रिटी रैंकिंग का बड़ा महत्व है। यह सेलिब्रिटी रैंकिंग भारत गणराज्य में इंडिया और हिंदुस्तान के विभाजन को स्पष्ट करते सामाजिक, आर्थिक विकास की कहानी भी है। सवाल यह है कि क्या नया भारतीय समाज सिर्फ धन के आदर्शों पर संकेंद्रित हो रहा है ? क्या मीडिया निर्मित छवियाँ ही हमारे अवचेतन में आदर्श के रूप में स्थापित हो रही हैं। जो सिर्फ धनी है सम्पन्न है। और जिनकी करणी का सेवा, या उपकार के भारतीय मूल्यों से कोई सरोकार नहीं। कैसे ये चेहरे हमारे लोकजीवन के आदर्शों में ढलते जा रहे हैं।
कला, संगीत, खेल, व्यवसाय, उद्यमिता का अपना महत्व है यह सभ्य लोकजीवन के आधारों में भी एक है। लेकिन जब समेकित रूप से हम समाज के आदर्शों की चर्चा करते हैं तो भारतीय सन्दर्भ पश्चिम से अलग पृष्ठभूमि पर नजर आता है। हम आज भी अपनी परोपकारी, सहकार, सहअस्तित्व, सहभागी और समावेशी समाज व्यवस्था के बल पर ही हजारों साल से सभ्यता, संस्कृति और लोकाचार के मामलों में एक वैशिष्ट्य के साथ अक्षुण्ण बने हुए हैं।
यह अक्षुण्णता हमारी समाज व्यवस्था या सामूहिक चेतना में किसी आर्थिक संपन्नता की वजह से नहीं है, बल्कि वसुधैव कुटुम्बकम, अद्वेत और सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय जैसे कालजयी जीवन आदर्शों के चलते ही है। इसलिये फोर्ब्स की यह ताजा सूची हमें आमंत्रित कर रही है कि हम हमारी समाज व्यवस्था के बदलते आइकॉन्स का विश्लेषण करें। हमें यह समझने की जरूरत है कि नई आर्थिकी से गढ़ी गई नई सामाजिकी के अवचेतन में अब हमारे जीवन मूल्य किस इबारत के साथ स्थापित हो रहे हैं। मिश्रित व्यवस्था वाले भारतीय से ग्लोबल कन्जयूमर में तब्दील करीब 30 करोड़ भारतीय (मिडिल एवं लोअर मिडिल क्लास का एक अनुमान आधारित आंकड़ा) क्या अपनी जड़ों से कट रहे हैं ? क्या इस नए भारत के प्रतिमान पूरी तरह बदल रहे हैं ? क्या इस विशाल तबके के लोकाचार में पैसा, कमाई और जीवन शैली की सम्पन्नता के आगे की मूल भारतीय सोच महज रस्मी बनकर रह गई है ? सवाल कई हैं जो हमें सामाजिक धरातल पर चेताने की कोशिशों में लगे हैं।
सरकार द्वारा बाध्यकारी सीएसआर की परोपकारी सरकारी आर्थिक व्यवस्था ने असल में हमारे हजारों साल के लोकजीवन को कुचलने का प्रयास ही किया है। नया मध्यमवर्गीय भारत एक नकली सामाजिक चेतना को गढ़ रहा है। वह एक रात या सोशल मीडिया की आभासी लोकप्रियता जैसी अस्थायी अवधि वाले आदर्श को अपने अक्स में देखने लगा है। उसके लोकाचार में संवेदना की व्याप्ति सिर्फ खुद की चारदीवारी तक सिमट गई है। इसीलिये समाज में परिवार और रिश्तों की दरकन ने बड़ी गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है। इसे समाजशास्त्र के नजरिये से समझा जाये तो कहा जा सकता है कि भारत में नागरिकशास्त्र और समाजशास्त्र दोनों को उपभोक्ताशास्त्र ने अपनी जमीन से बेदखल-सा कर दिया है। यही कारण है कि बिग बॉस और इंडियन आइडल जैसे मंचों की पकड़ हमारे मन मस्तिष्क में नानाजी देशमुख, जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, नर्मदा सेवी अमृतलाल बेगड़, अपना घर भरतपुर या शिवगंगा झाबुआ के आग्रहों से अधिक है। गली की एक बिटिया अभावों से जूझती है एक दिन कलेक्टर बन जाती है लेकिन वह समाज और मीडिया के लिए क्षणिक आदर्श है उस बिटिया की तुलना में जो सिनेमा या रंगमंच के किसी कमाऊ या कॉरपोरेट प्लेटफॉर्म पर मौजूद है।
हमारे अवचेतन के 360 डिग्री कंज्यूमर बेस्ड बदलाव को समझिए उन विज्ञापनों से जो नहाने, पहनने, खाने, सोने, रतिकर्म से लेकर विलासिता के हर उत्पाद से जुड़े हैं और हर उस उत्पाद के उपयोग की अपील कामुक भाव भंगिमा के साथ महिलाएं कर रही हैं। फोर्ब्स की भारतीय सेलिब्रिटी लिस्ट में इस साल पॉर्नस्टार सनी लियोन भी शामिल हैं क्योंकि उन्हें हम भारतीयों ने इंटरनेट पर सबसे ज्यादा सर्च किया है। इसलिये उनकी कमाई और मीडिया स्पेस किसी सुपर 30 वाले से ज्यादा रहा है। हमारी सामूहिक चेतना में सनी लियोन सचिन शर्मा, आशीष सिंह या राजाबाबू सिंह जैसे नवाचारी और काबिल अफसरों से भी ज्यादा आदर्श स्थिति में है, जिन्होंने अजमेर और इंदौर जैसे शहरों को वैश्विक मानकों पर ला खड़ा किया या ग्वालियर चंबल जैसे डकैत प्रभावित जोन में सोशल पुलीसिंग की नई कहानी लिख दी है। असल में यह हमारे बदल चुके अवचेतन की ही कहानी है। जहां सनी लियोन ने हमारे मध्यमवर्गीय समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। तथ्य है जब समाज के चेतना का स्तर अपनी जड़ों से कट जाता है तब उस समाज के नए स्वरूप का अवतरण होता है। भारतीय समाज इसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। राजनीति, क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम का घनीभूत हो चुका आवरण फिलहाल मस्तिष्क के किसी भी कोने में हमारे पारंपरिक लोकाचार को जगह देने के लिए तैयार नहीं है। केंद्रीय मंत्री प्रताप सारंगी को कोई नहीं जानता था मोदी कैबिनेट में जगह मिलने से पहले, लेकिन प्रतापगढ़ के राजा भैया को रॉबिनहुड बताने वाले 120 विशेष बुलेटिन अब तक जारी हो चुके हैं हमारे 24 घण्टे खबरिया चैनल्स पर। आशा कीजिये हम विवेकानंद के आग्रह पर अपनी मूल चेतना की ओर लौटेंगे और अगले वर्ष जब यह सूची जारी हो तब उसमें सामाजिक क्षेत्र के चेहरे भी हमें नजर आएं।
-डॉ. अजय खेमरिया