हमें समझना होगा कि भाषा का बहुत बड़ा मार्केट होता है। इसमें सिर्फ किताबें उपन्यास ही नहीं, उद्योग, कला, विज्ञापन, अखबार, टीवी कार्यक्रम, फिल्में, पर्यटन, संस्कृति, धर्म, खान-पान, रहन-सहन, विचारधारा, आंदोलन और राजनीति भी शामिल है।
भाषा संवाद संप्रेषण का सशक्त माध्यम है। मनुष्य को इसलिए भी परमात्मा की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है कि वह भाषा का उपयोग कर अपने भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। यही विशेषता है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न करती है। आज संसार में 6809 से अधिक भाषाएं और अनगिनत बोलियां हैं। जिसमें से एक भाषा हिन्दी भी है। हिन्दी संसार की दूसरी बड़ी भाषा है जिसका उपयोग सर्वाधिक युवा आबादी करती है। हिन्दी का व्यक्तित्व इसकी वर्णमाला के कारण विराट है। हिन्दी की खासियत है कि इसमें जैसा बोला जाता है, वैसा ही सुना जाता है और वैसा ही लिखा भी जाता है। निस्संदेह, हिन्दी में सामर्थ्य की सुगंध है। उदाहरणार्थ, हम 'कोण' बोलेंगे तो हिन्दी में लिखेंगे भी 'कोण' ही। 'ण' को हम 'ण' ही लिखेंगे, 'न' नहीं। परंतु उर्दू, अरबी, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा में 'ण' को 'न' ही लिखा जाएगा। इस प्रकार हिन्दी भाषा का 'कोण' अन्य भाषाओं में 'कोन' हो जाएगा। परिणामस्वरूप अर्थ में ही अंतर आ जाएगा। इससे सिद्ध है कि सामर्थ्य की जो सुगंध हिन्दी के पास है वह अन्य भाषाओं के पास नहीं। फिर भी हिन्दी अनादरित है तो इसका कारण यह है कि जिस प्रकार से कुछ लोगों को सुगंध से अप्रियताबोध अर्थात एलर्जी होती है, ठीक उसी प्रकार से भारत में तथाकथित अभिजात्य वर्ग है, जिसकी नाक के नथुने हिन्दी के सामर्थ्य की सुगंध से फड़कने लगते हैं। मातृभाषा जब मात्र कुछ लोगों की भाषा बनकर रह जाए तो उसका कैसा और कितना विकास होगा यह सहज चिंतनीय है।
हिन्दी भाषा मादक भी है, आकर्षक भी है, मोहक भी है। यही कारण है कि रूस के वरान्निकोव और बेल्जियम के बुल्के भारत आकर हिन्दी को समर्पित हो गये। बोलने को तो फ्रेंच भी एक भाषा है, परंतु आकर्षक और मोहक नहीं। इंटेलियन भाषा आकर्षक है, परंतु मादक और मोहक नहीं। चीनी भाषा न तो मादक है, न आकर्षक और न ही मोहक। इन्हीं सब कारणों से हिन्दी अपने गुणों पर गौरवान्वित है। विश्व हिन्दी दिवस हर साल 10 जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व भर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण निर्मित करना और हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित किया गया था। इसलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस सम्मेलन में 30 देशों के 122 प्रतिनिधि शामिल हुए थे। पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी, 2006 को हर साल विश्व हिंदी दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी। बता दें कि विश्व हिंदी दिवस के अलावा हर साल 14 सितंबर को 'हिंदी दिवस' मनाया जाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि हमारा देश लंबे समय तक अंग्रेजों की दासता के अधीन रहा। जाहिर-सी बात है कि गुलाम देश के पास अपनी कोई राज या राष्ट्रभाषा नहीं होती। परतंत्र राष्ट्र बिन भाषा के गूंगे अपाहिज की तरह ही होता है, जो अपनी आंखों के सामने सबकुछ देखता है, पर बोल नहीं सकता। रक्तरंजित क्रांति के उपरांत जब 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ तो इसके कुछ वर्षों बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1) में इस प्रकार वर्णित है - संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। गूंगे राष्ट्र के पास अब अपनी अभिव्यक्ति को प्रकट करने के लिए हिन्दी भाषा अधिकारिक तौर पर एक सशक्त माध्यम बनी। ऐसी बात भी नहीं है कि आजादी से पूर्व देश में हिन्दी का प्रयोग शून्य था, बल्कि हिन्दी भारत को आजाद कराने में एक सैनिक की भांति लड़ी थी और इसका प्रयोग उस समय भी सर्वाधिक था।
लेकिन समय की करवट के साथ हिन्दी का आकाश सूना होता गया। लोग अंग्रेजी को भूलाने के बजाय और भी इसके दीवाने होते गये। मां के जगह मम्मी और पिता की जगह डैड हो गया। बस, इसी में सब बैड हो गया ! ओर फिर हिन्दी को एक दिन की भाषा बनाकर ऐसे याद किया जाने लगा कि जैसी किसी की पुण्यतिथि हो। दरअसल, हमें अपनी भाषा का गौरव नहीं पता है। उसका मूल्य हम भूल चुके हैं। हालात यह है कि आज हिन्दवासियों को अंग्रेजी की गाली भी प्रिय लगने लगी है। वस्तुतः सौंदर्य और सुगंध से परिपूर्ण हिन्दी का यश मिटता जा रहा है। आलम है कि हम हिन्दी को कुलियों की और अंग्रेजी को कुलीनों की भाषा मानते हैं। देश स्वाधीन है परंतु वैचारिक और मानसिक दृष्टि से हम आज भी दास हैं। इसी कारण हिन्दी को कूड़े-करकट का ढेर और अंग्रेजी को अमृत-सागर समझने की हमारी मान्यता आज भी नहीं बदली है। सवाल है कि हिन्दी के प्रति हीनता का बोध राष्ट्र को क्या उन्नति के शिखर पर ले जायेगा? स्मरण रहे कि कोई राष्ट्र अपनी भाषा का आदर किये बगैर विकसित एवं समृद्धशाली नहीं हो सकता। आज भारत ही नहीं विदेश भी हिन्दी भाषा को अपना रहे हैं तो फिर हम देश में रहकर भी अपनी भाषा को बढ़ावा देने के बजाय उसको खत्म करने पर तुले हैं? विश्व में अनेक देश जैसे- इंग्लैंड, अमेरिका, जापान और जर्मन आदि अपनी भाषा पर गर्व महसूस करते हैं तो हम क्यों नहीं? चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 3 गुनी बड़ी है, आज वहां बिजली, पानी, आवास, चिकित्सा, रोज़गार अथवा गरीबी जैसे मुद्दे काफ़ी हद तक न के बराबर हैं। भारत 1947 में आज़ाद हुआ और चीन जो जापान के साथ द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका में और आतंरिक संघर्षों के कारण लगभग बर्बाद हो गया था, वहां 1949 में कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। गरीबी, कुपोषण, अनियंत्रित जनसंख्या, महामारियां और खस्ती आर्थिक व्यवस्था किसी भी देश के लिए बड़ी चुनौती थीं, लेकिन चीन ने दृढ़ता से सबका मुक़ाबला किया। आज चीन की तरक्की की कहानी सबके सामने है। सिर्फ़ अपनी मातृभाषा मैंडरिन और कॅन्टोनीज़ को ही आधार मानकर और बिना अंग्रेज़ी शिक्षा के अपनी तकनीक और शिक्षण व्यवस्था को दृढ़ता से संचालित कर के चीन ने मिसाल रखी है।
हमें समझना होगा कि भाषा का बहुत बड़ा मार्केट होता है। इसमें सिर्फ किताबें उपन्यास ही नहीं, उद्योग, कला, विज्ञापन, अखबार, टीवी कार्यक्रम, फिल्में, पर्यटन, संस्कृति, धर्म, खान-पान, रहन-सहन, विचारधारा, आंदोलन और राजनीति भी शामिल है। अगर एक वर्ष के लिए ही भारत जैसे विकासशील देश अंग्रेजी पर रोक लगा दें तो अमेरिका और इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है। भारत में अंग्रेजी जितनी फायदेमंद भारतीयों के लिए मानी जाती है, उससे हज़ार गुना ज्यादा लाभ अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा के लिए भारत से कमा लेती है। कभी सोचा है कि अपनी विशाल प्राचीन संस्कृति के रहते भी भारत के लोग एक पिद्दी से देश इंग्लैंड को महान क्यों मानते हैं, जबकि उसके पड़ोसी फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, इटली इत्यादि उसकी ज्यादा परवाह नहीं करते। इसका कारण है, हमने इंग्लैंड की भाषा को महान मान लिया, लेकिन उसके पड़ोसियों ने नहीं माना।
आज भाषा को लेकर संवेदनशील और गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि क्या अंग्रेजी का कद कम करके ही हिन्दी का गौरव बढ़ाया जा सकता है? जो हिन्दी कबीर, तुलसी, रैदास, नानक, जायसी और मीरा की भजनों से होती हुई प्रेमचंद, प्रसाद, पंत और निराला को बांधती हुई भारतेंदु हरिशचंद्र तक सरिता के भांति कलकल बहती रही, आज उसके मार्ग में अटकलें क्यों हैं? और आज आजाद भारत में हिन्दी कर्क रोग से पीड़ित क्यों है? अफसोस इस बात का भी है कि हम हिन्दी का यश बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध तो है, पर नवभारत नहीं न्यू इंडिया में। यदि माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश का वास्तविक कायाकल्प करना चाहते हैं, तो हिन्दी को उसकी गरिमा पुनः लौटाये। डिजिटल इंडिया के इस युग में चरमराती हिन्दी को चमकाना होगा। तकनीकी और वैज्ञानिक दौर में हिन्दी के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बाध्यता अनिवार्य करनी होगी। उदाहरण के लिए गूगल जैसे बड़े सर्च इंजन की ही ले तो इस पर सर्च करने के बाद 90 फीसदी परिणाम अंग्रेजी में आते हैं, जबकि इसके विपरीत 90 फीसदी परिणाम हिन्दी में लाने होंगे। सरकारी वेबसाइट को हिन्दी में रूपांतरित करने से लेकर ऑन या ऑफलाइन फॉर्म सभी को हिन्दी में परिवर्तित या इनका नवीनकरण करना इस दिशा में एक सार्थक कदम होगा। इस तरह अनेक छोटी-छोटी कोशिश मन से की जाये तो हिन्दी के प्रति एक सुखद माहौल तैयार किया जा सकता है।
- देवेन्द्रराज सुथार