देश के खिलाफ बोलना, लिखना या ऐसी कोई भी हरकत जो देश के प्रति नफरत का भाव रखती हो वो देशद्रोह कहलाएगी। अगर कोई संगठन देश विरोधी है और उससे अंजाने में भी कोई संबंध रखता है या ऐसे लोगों का सहयोग करता है तो उस व्यक्ति पर भी देशद्रोह का मामला बन सकता है।
लेख ।(दीपक कौल) आज देश के कई कोने में अभिव्यक्ति की आजादी की बड़ी-बड़ी दुकानें और बड़े-बड़े शो-रूम खुले हैं। जिनमें दुकानदार नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े-बड़े ठेकेदार बैठे हैं। भारत तेरे टुकड़े होंगे ये सुनकर आपके मन में क्या ख्याल आता है। ये बोलना भारत सरकार के खिलाफ है या भारत के खिलाफ है। इसे बोलना देशद्रोह होना चाहिए या नहीं। इसका जवाब है हां, यही देशद्रोह है। क्योंकि यहां सरकार के टुकड़े करने की बात नहीं हो रही या किसी पार्टी के टुकड़े करने की बात नहीं हो रही। बल्कि देश के टुकड़े करने की बात हो रही है।
एक शख्स था थोमस बैबिंगटन मैकाले ये भारत तो आया था अंग्रेजी की पढ़ाई करने लेकिन उसके बाद इसी भारत में अगर किसी ने देशद्रोह का कानून ड्राफ्ट किया तो वो ही लार्ड मैकाले। सोचिए जरा सन 1837 में जो देशद्रोह कानून बना था आज 2020 में उस पर सियासत हो रही है। कांग्रेस ने तो अपने मैनीफेस्टो में उसे हटाने की बात तक कर दी थी। आज हम एमआरआई में बात करेंगे देशद्रोह के कानून और उसको लेकर हुई सियासत के बारे में।
देशद्रोह की धारा 124ए क्या कहती है?
देश के खिलाफ बोलना, लिखना या ऐसी कोई भी हरकत जो देश के प्रति नफरत का भाव रखती हो वो देशद्रोह कहलाएगी। अगर कोई संगठन देश विरोधी है और उससे अंजाने में भी कोई संबंध रखता है या ऐसे लोगों का सहयोग करता है तो उस व्यक्ति पर भी देशद्रोह का मामला बन सकता है। अगर कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर मौलिक या लिखित शब्दों, किसी तरह के संकेतों या अन्य किसी भी माध्यम से ऐसा कुछ करता है। जो भारत सरकार के खिलाफ हो, जिससे देश के सामने एकता, अखंडता और सुरक्षा का संकट पैदा हो तो उसे तो उसे उम्र कैद तक की सजा दी जा सकती है। ये बात सही है कि ये कानून अंग्रेजों का बनाया कानून है। देश द्रोह का ये वो कानून है जो 149 साल पहले भारतीय दंड संहिता में जोड़ा गया। 149 साल यानी 1870 में जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेजों ने ये कानून इसलिए बनाया ताकि वो भारत के देशभक्तों को देशद्रोही करार देकर सजा दे सके।
देशद्रोह के आरोपी भारत के नायक
बाल गंगाधर तिलक
भगत सिंह
लाला लाजपत राय
अरविंदो घोष
महात्मा गांधी (साल 1922 में यंग इंडिया में राजनीतिक रूप से 'संवेदनशील' 3 आर्टिकल लिखने के लिए राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।)
अंग्रेजों की इस नीति का विरोध पूरे भारत ने किया था। क्योंकि तब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने उस दौर में देशद्रोह के इस कानून को आपत्तिजनक और अप्रिय कानून बताया था। लेकिन वो आजादी के पहले की स्थिति थी और पूरा देश स्वतंत्रता कि लड़ाई लड़ रहा था। उस परिस्थितियों की तुलना वर्तमान के दौर से नहीं की जा सकती है।
आजादी के सात दशक बाद इस कानून को लेकर अकसर सियासत भी खूब होती रही है। कांग्रेस ने तो बकायदा अपने मेनिफेस्टो में लिख दिया था कि... IPC की धारा 124ए जो देशद्रोह अपराध को परिभाषित करती है। जिसका दुरुपयोग हुआ, उसे खत्म किया जाएगा।
इन देशों ने देशद्रोह का कानून खत्म किया।
ब्रिटेन ने 2009 में देशद्रोह का कानून खत्म किया और कहा कि दुनिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में है।
आस्ट्रेलिया ने 2010 में
स्काटलैंड ने भी 2010 में
दक्षिण कोरिया ने 1988 में
इंडोनेशिया ने 2007 में देशद्रोह के कानून को खत्म कर दिया।
संविधान में देशद्रोह का जिक्र नहीं
देशद्रोह की अवधारणा औपनिवेशिक सोच और समय की है। जिसकी आजाद भारत में कोई जगह नहीं है। जो शब्द संविधान में नहीं वो हमारे कानून में जिंदा है।
भारत में देशद्रोह के कानून का इस्तेमाल
2014 से 2016 के दौरान देशद्रोह के कुल 112 मामले दर्ज हुए।
करीब 179 लोगों को इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया।
देशद्रोह के आरोप के 80 फीसदी मामलों में चार्जशीट भी दाखिल नहीं हो पाई।
सिर्फ 2 लोगों को ही सजा मिल पाई।
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा
केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। देशद्रोह कानून का इस्तेमाल तब ही हो जब सीधे तौर पर हिंसा भड़काने का मामला हो। सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की संवैज्ञानिक बेंच ने तब कहा था कि केवल नारेबाजी देशद्रोह के दायरे में नहीं आती।
बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में कहा था कि महज नारेबाजी करना राजद्रोह नहीं है। दो लोगों ने उस समय खालिस्तान की मांग के पक्ष में नारे लगाए थे।
भारतीय लॉ कमीशन का सुझाव है...
धारा 124ए तभी लगे जब कानून व्यवस्था बिगाड़ने या सरकार के खिलाफ हिंसा के मकसद से कोई गतिविधि हो। संविधान की धारा 19 (1) ए की वजह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगे हुए हैं। ऐसे में धारा 124 की ज़रूरत नहीं है।
आजाद भारत के चर्चित राजद्रोह केस
26 मई 1953 को फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह ने बिहार के बेगूसराय में एक भाषण दिया था। राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ दिए गए उनके इस भाषण के लिए उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन (31 अक्टूबर 1984) को चंडीगढ़ में बलवंत सिंह नाम के एक शख्स ने अपने साथी के साथ मिलकर 'खालिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाए थे।
साल 2012 में कानपुर के कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संविधान का मजाक उड़ाने के आरोप में गिरफ्तार किया था। इस मामले में त्रिवेदी के खिलाफ राजद्रोह सहित और भी आरोप लगाए गए। त्रिवेदी के मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने मुंबई पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा था।
गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल के खिलाफ भी राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था। जेएनयू में भी छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथी उमर खालिद पर राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था।
दिवंगत पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के खिलाफ साल 2015 में उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने राजद्रोह के आरोप लगाए थे। इन आरोपों का आधार नेशनल ज्यूडिशियल कमिशन एक्ट (NJAC) को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना बताया गया।
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नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो यानी NCRB ने साल 2018 के आंकड़े जारी किए। इसके मुताबिक, दो साल में राजद्रोह के मामले दोगुने हो गए हैं। 2016 में ये आंकड़ा 35 था, वो 2018 में बढ़कर 70 हो गया। राजद्रोह के मामले में झारखंड लिस्ट में 18 केस के साथ पहले नंबर पर है। इसके अलावा असम दूसरे नंबर पर है, जहां 17 मामलों में 27 लोगों पर दर्ज केस हुए। जम्मू-कश्मीर में 2018 में 12 मामले दर्ज हुए हैं, जबकि 2017 में राजद्रोह का एक ही केस दर्ज किया गया था। साथ ही केरल में नौ, मणिपुर में चार केस दर्ज हुए हैं। ये दोनों ही राज्य टॉप फाइव में शामिल हैं।
इसमें कोई शक या संदेह नहीं कि राष्ट्र के खिलाफ या देश के खिलाफ कभी भी कोई कुछ करता है तो उसे माफ नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन देशद्रोह कानून का राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल किया जाना भी गलत है।