नोएडा और लखनऊ में आरम्भ की गई पुलिस आयुक्त प्रणाली के बहाने देश के आईपीएस संवर्ग के समक्ष पुलिस की जनोन्मुखी छवि बनाने की चुनौती भी है। भारत में परम्परागत और स्वाभाविक प्रशासक कही जाने वाली आईएएस बिरादरी के इस मिथक को भी तोड़ने का सुनहरा अवसर है कि वही एकमात्र प्रशासक वर्ग है। लोगों के बीच भय और कतिपय डरावने धरातल पर खड़ी भारत की पुलिस भी प्रशासन में सक्षमता और संवेदनशीलता के साथ नागरिकों के लिए उपलब्ध है। इस तथ्य को साबित करने की जवाबदेही भी उन आईपीएस अफसरों के कंधों पर है जो मामूली अंकों से आईएएस नहीं बन पाते हैं। बेहतर होगा नोएडा और लखनऊ के पुलिस कमिश्नर ऐसी मिसाल प्रस्तुत करें कि भारत में पुलिस की डरावनी और कतिपय संगठित गुंडों की छवि पर पूर्ण विराम लग जाए।
यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की इस बात के लिए सराहना की जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय शासन तंत्र के सबसे ताकतवर दबाव को दरकिनार कर लखनऊ और नोएडा जैसे महानगरों में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू कर दी है। देश के इन दो महत्वपूर्ण शहरों में अब पुलिस कमिश्नर होंगे इससे पहले 15 राज्यों के 71 शहरों में यह सिस्टम काम कर रहा है। इसलिये कहा जा सकता है कि इस निर्णय में नया क्या है ? असल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली भारत में सबसे ताकतवर कही जाने वाले आईएएस बिरादरी के परम्परागत और सामन्ती प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रशासनिक प्रक्रिया है। पूरी दुनिया में भारत की आईएएस बिरादरी को सबसे ताकतवर, जड़ और परम्परागत माना जाता है। आजाद "भारत में शासन और राजनीति" का अनुभव इस मान्यता को स्वयंसिद्ध करता है। वस्तुतः यह सामान्य धारणा है कि आईएएस ही भारत को चलाते हैं। ऐसे में योगी आदित्यनाथ योगी ने मुख्यमंत्री के रूप में इस लॉबी के अधिकारों को सीमित करने और उन्हें आईपीएस संवर्ग में हस्तांतरित कर बिरली राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। इस प्रणाली को रोकने के लिए आईएएस लॉबी हर राज्य में समवेत होकर सक्रिय हो जाती है।
इसी उत्तर प्रदेश में 40 साल पहले 1979 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रामनरेश यादव ने कानपुर शहर के लिए पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी लेकिन तबके पुलिस कमिश्नर को कानपुर पहुँचते ही वापस बुला लिया गया था क्योंकि मुख्यमंत्री पर लखनऊ में आईएएस लॉबी ने इतना दबाव बना दिया था कि उन्हें मजबूर होकर कमिश्नर नियुक्त किये गए श्री त्रिपाठी को फ़ोन लगाकर ज्वाइनिंग से पहले ही वापस बुलाना पड़ा। मायावती को अफ़सरशाही के विरुद्ध सख्त मिजाज सीएम गिना जाता है लेकिन वह भी इस मामले में निर्णय नहीं कर सकीं। अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस आशय के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की कोशिशें की थी। लेकिन वह भी सफल नहीं हुए। ऐसे में यूपी के मौजूदा सीएम ने इस बड़े नीतिगत निर्णय को अमल में लाकर निःसंदेह आईएएस लॉबी को हद में समेटने का काम किया है। असल में अभी तक का अनुभव भी इस मामले में आईएएस की असीम ताकत और मनमर्जी की तस्दीक करते हैं। मप्र के ताकतवर सीएम रहे दिग्विजय सिंह ने 14 मई 2001 को प्रदेश के दो बड़े शहर इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की घोषणा की लेकिन वह ढाई साल तक इसे लागू नहीं कर पाए और 2003 में सत्ता से बाहर हो गए।
28 फरवरी 2012 को फिर से मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कमिश्नर सिस्टम लागू करने का ऐलान किया लेकिन अपने इस दूसरे कार्यकाल में वह इसे आगे नहीं बढ़ा पाए। तीसरे कार्यकाल में जनवरी 2018 में भी शिवराज सिंह ने इंदौर, भोपाल में नए पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। लेकिन शिवराज सरकार प्रदेश में ताकतवर आईएएस लॉबी के आगे लगातार घुटने टेकती रही। बहुमत और राजनीतिक ताकत के मामले में दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह प्रदेश के चुनौती शून्य सीएम थे। लेकिन दोनों की सरकारें आईएएस प्रभुत्व और वर्चस्व के लिये जानी जाती रहीं। नतीजतन मुख्यमंत्रियों की घोषणाए आईएएस की ताकत के आगे दफ्तरी डस्टबिन में समाती रही। हरियाणा में हुड्डा और ओडिशा में नवीन पटनायक के समक्ष भी ऐसी ही परिस्थितियां निर्मित हुईं। समझा जा सकता है कि हमारे तंत्र में आईएएस की ताकत किस व्यापकता से निर्वाचित निकाय को ऑक्टोपशी शिकंजे में जकड़े हुए है।
फिलहाल लखनऊ और नोएडा में कुछ दाण्डिक ताकतों का प्रयोग अब डीएम की जगह पुलिस कमिश्नर करेंगे। वे दंगा, बलवा या शान्ति भंग की मैदानी स्थिति में धारा 144 के लिए डीएम के मोहताज नहीं होंगे। धारा 151, 107, 116, 109, 110 के तहत अपराधियों की जमानत लेंगे। आर्म्स एक्ट, आबकारी, बिल्डिंग परमिशन जैसे काम भी खुद करेंगे। अफवाह तंत्र के विरुद्ध इंटरनेट शट डाउन के लिए भी वे खुद सक्षम होंगे। नोएडा इस समय भारत की मिनी आर्थिक राजधानी के बराबर है वहाँ कानून व्यवस्था वाकई संवेदनशील विषय है।
कमोबेश लखनऊ भी देश का सबसे प्राचीन और संवेदनशील शहर है। भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 कानून व्यवस्था के कुछ मामलों को विनियमित करने की शक्तियां डीएम को देता है जो कि पहले आईसीएस हुआ करते थर और अब आइएएस होते हैं। आईएएस अफसर अपनी दाण्डिक शक्तियों को एसडीएम के पास प्रत्यायोजित करते हैं। इसलिये जिलाबदर, गैंगस्टर जैसे मामलों में पुलिस की भूमिका नगण्य रहती है। इसे जिला बदर की कारवाई से समझा जा सकता है। किसी कुख्यात अपराधी का आतंक जब थाना क्षेत्र से निकल कर विस्तारित होने लगता है तब पुलिस ऐसे अपराधियों के विरुद्ध जिला बदर की कारवाई प्रस्तावित कर डीएम/कलेक्टर को भेजती है।
डीएम ऐसे प्रकरणों को अपने यहां दर्ज कर बाकायदा सुनवाई और पक्ष समर्थन की प्रक्रिया अपना कर एसपी के प्रस्ताव पर निर्णय करते हैं। अक्सर देखा गया है कि डीएम राजनीतिक या अन्य दबाव में आकर इन प्रकरणों को लंबे समय तक लटकाए रखते हैं। पुलिस कमिश्नर प्रणाली में यह अधिकार कलेक्टर्स से छिन जाते हैं और कमिश्नर जिला बदर और गैंगस्टर एक्ट में सीधे निर्णय करने लगते हैं। जिला बदर अपराधी नियत समयावधि तक न केवल गृह जिले बल्कि उसके सभी सीमावर्ती जिलों में नहीं रह सकता है। कमिश्नर कार्यक्षेत्र में ऑर्म्स लाइसेंस भी कलेक्टर नहीं कमिश्नर देते हैं अभी जिलों के एसपी कलेक्टर को अपनी सिफारिश भेजते हैं कि फलां व्यक्ति को हथियार लाइसेंस दिया जाए या नहीं। धरना प्रदर्शन के दौरान कानून और सुरक्षा व्यवस्था बनाने का काम पुलिस के जिम्मे रहता है लेकिन इनकी अनुमतियाँ संबंधित एसडीएम जारी करते हैं। कमिश्नर प्रणाली में यह अधिकार भी राजस्व अफसरों से छीन लिया जाता है। बड़े शहरों में यातायात को निर्बाध बनाने के लिए पुलिस को बड़ी मशक्कत करनी होती है अक्सर अतिक्रमणकारियों के आगे पुलिस लाचार नजर आती है। कमिश्नर सिस्टम के चलते नगर निगम प्रशासन को न्यायिक आदेश जारी करने के अधिकार पुलिस को मिल जाते हैं। पुलिस कमिश्नर जमीनों और अतिक्रमण के मामलों में भी पटवारियों या दूसरे मैदानी राजस्व कर्मियों को एक्जीक्यूटिव मैजिस्ट्रेट की तरह आदेश जारी करते हैं। जाहिर है यह आईएएस अफसरों की ताकत में आईपीएस की सेंधमारी है। इस सबके बावजूद यह भी ध्यान रखना होगा कि पुलिस और आम आदमी के रिश्ते आज भी भरोसे के नहीं भय के धरातल पर हैं। ऐसा न हो कि कमिश्नर सिस्टम इस भय को और बड़ा कर दे।
-डॉ. अजय खेमरिया