नई दिल्ली। बात महज 29 साल पुरानी है जब 1989 और 1990 दो वर्षो के अंतराल में रातों-रात लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर छोड़कर निर्वासन में जीने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं था बल्कि घाटी में उमड़ा एक जह्ननी और धार्मिक उन्माद था, जिससे उन लाखों लोगों के उन घरौंदों को उजाड़ दिया, जहां उनकी कई पीढ़ियां रहती आईं थीं।
श्रीनगर का वह रैनावाड़ी मोहल्ला जहां कश्मीरी पंडितों का हजारों परिवार रहा करता था अचानक आई मजहबी तूफान और आंधी में बिखर गई और उन घरौंदों छोड़कर भागना पड़ा, जहां कश्मीरी पंडितों की कई पीढ़ियों ने बचपन, जवानी और बुढ़ापे गुजारे थे। कश्मीर पंडितों के दर्द को लेकर फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा ने एक फिल्म निर्देशित की है, जिसका नाम शिकारा है। जल्द रिलीज होने वाली इस फिल्म में पहली बार कश्मीर घाटी के मूल बाशिंदे कश्मीरी पंडितों के निर्वासन की कहानी बयां की गई है।
संभवतः भारत की आजादी और भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के बाद भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में शिकारा संभवत पहली फिल्म होगी, जिसमें कश्मीर घाटी में कभी बहुसंख्यक रहे कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा, पलायन और निर्वासन पर चर्चा की जा रही है। फिल्म इतिहास में पहली बार होगा जब कश्मीर के मूल बाशिंदे की बात ही नहीं की गई है बल्कि उनके दर्द को सांझा किया जाएगा।
आज 29 वर्ष पहले कश्मीर के मूल बांशिदों को कैसे उनके घरों से ही नहीं बेदखल किया गया बल्कि उन्हें उनकी जड़ों से काटने की पूरी कोशिश की गई। मजहबी उन्माद और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान पोषित और प्रायोजित आतंकवाद से पैदा हुए अलगाववाद का बीज कश्मीर में ऐसे रोपा गया कि कश्मीरी पंडितों ने अपने घर, जमीन और धंधा छोड़कर और भागकर आप-पड़ोस में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। कुछ कश्मीरी पंडितों ने जम्मू में शरण ली और वहां ख़ेमों का एक शहर बसा लिया और उनमें से कुछ राजधानी दिल्ली में शरणार्थी का जीवन जीने को तैयार हो गए।
कश्मीरी पंडितों को का घाटी से पलायन की शुरुआत पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के काल में हुई। उसने षड़यंत्र पूर्वक कश्मीर में अलगाव और आतंक की आग फैलाई। उसके भड़काऊ भाषण की टेप को अलगाववादियों ने कश्मीर में बांटा। कहा जाता है कि बेनजीर के जहरीले भाषण ने कश्मीर में हिन्दू और मुसलमानों की एकता तोड़कर रख दिया था। एक सुबह कश्मीर के प्रत्येक हिन्दू घर पर एक नोट चिपका हुआ मिला, जिस पर लिखा था, 'कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे। वह दिन और तारीख था 19 जनवरी, 1990 जब हजारों कश्मीरी पंडित कश्मीर से जान औ माल छोड़ कर भागे। '
जो नहीं नहीं भागे, उनके कश्मीरी पंडितों के परिवारों के मुखिया को मार दिया गया, उनकी स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जला दिया गया। उनके बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ हो रहा यह मंजर बेहद खतरनाक था, जिसे देखकर कश्मीर में शेष 3.5 लाख हिंदू एक साथ पलायन कर जम्मू और दिल्ली पहुंच गया।
सबसे खतरनाक बात यह थी कि उस वक्त पूरे देश का मुसलमान ही चुप नहीं था बल्कि संसद, सरकार, नेता, अधिकारी, लेखक, बुद्धिजीवी और समाजसेवी सभी के मुंह पर गहरी चुप्पी थी और 1989 के पहले कभी कश्मीरी पंडित जो कभी बहुसंख्यक हुआ करते थे।
निर्वासन के 29 वर्ष बाद भी कश्मीरी पंडित शरणार्थी शिविरों में नारकीय जीवन काटते को मजूबर थे, लेकिन 5 अगस्त, 2019 की तारीख उनके लिए सुकूंन ले करके आई जब जम्मू-कश्मीर के स्पेशल स्टेट्स को खत्म करके उसे केंद्रशासित प्रदेश में बदल दिया गया।
कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर सबसे पहले मुगल शासक औरंगजेब के काल में जुल्म ढाए गए और वहां के स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों ने उन पर जुल्म ढाए और उन्हें कश्मीर में अपना घर छोड़ने के लिए मजूबर किया, लेकिन 29 साल गुजरने के बाद भी अब तक किसी भी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली थी।
ऐसा नहीं है कि जुल्म सिर्फ कश्मीरी पंडितों पर ढाए गए। इस दौरान कश्मीर घाटी में रह रहे शियाओं का भी कत्लेआम किया गया। पाक अधिकृत कश्मीर में जिस तरह पंडितों को मार-मार कर भगाया गया उसी तरह वहां से शिया मुसलमानों को भी भगाया गया। जेहाद' और 'निजामे-मुस्तफा' के नाम पर बेघर किए गए लाखों कश्मीरी पंडितों के घर वापसी के रास्ते पूरी तरह से बंद कर दिए थे। कश्मीर में कश्मीरी पंडितो को बसाने के सरकारी प्रयासों में रोड़े अटकाए गए। आंकड़ों के मुताबिक कश्मीर से 1989 और 90 के बीच लगभग 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हुआ था।
बीच में, आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर में हालात और बिगड़ गए थे। आतंकी संगठन लश्कर-ए-इस्लाम ने पुलवामा में कई जगह पोस्टर लगाए थे, जिसमें कहा गया है कि कश्मीरी पंडित या तो घाटी छोड़ दें या फिर मरने के लिए तैयार रहें। यह इसलिए क्योंकि अभी भी कश्मीर घाटी में करीब 808 परिवार रह रहा है, लेकिन जम्मू-कश्मीर से स्पेशल स्टेट्स हटने के बाद कश्मीर में कश्मीर पंडितों के परिवार की लौटने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। श्रीनगर के ज़ियाना कदाल इलाक़े की पतली गलियों में सूखे मेवे की दुकान छोड़कर 26 साल पहले भागे कश्मीरी पंडित रोशन लाल मावा की दुकान जो 1990 से बंद थी अब एक बार फिर खुल चुकी है।
कश्मीरी पंडित रोशन लाल मावा ने श्रीनगर के जियाना कदाल इलाके में स्थित बंद पड़ी अपनी दुकान में करीब 29 साल बाद जब दोबारा अपने सूखे मेवों का व्यापार शुरू किया तो स्थानीय दुकानदारों ने न सिर्फ़ उनका स्वागत किया बल्कि सराहना भी की। मावा के पिता भी इसी इलाक़े में ड्राई फ्रूट ही बेचते थे। 70 साल के मावा ने 1990 में कश्मीर घाटी को तब छोड़ा था जब अज्ञात बंदूकधारियों के हमले में वो घायल हो गए थे। उन्हें चार गोलियां लगी थीं। इस हमले ने मावा को कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था और वह दिल्ली निर्वासित हो गए थे।
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ऐसे टूटा था कश्मीरी पंडितों पर घाटी में कहर
कश्मीर में हिंदुओं पर कहर टूटने का सिलसिला 1989 जिहाद के लिए गठित जमात-ए-इस्लामी ने शुरू किया था, जिसने कश्मीर में इस्लामिक ड्रेस कोड लागू कर दिया। उसने नारा दिया हम सब एक, तुम भागो या मरो। इसके बाद कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ दी। करोड़ों के मालिक कश्मीरी पंडित अपनी पुश्तैनी जमीन जायदाद छोड़कर रिफ्यूजी कैंपों में रहने को मजबूर हो गए।
300 से अधिक हिंदू महिला और पुरुषों की हुई थी हत्या
14 सितंबर 1989 से कश्मीरी पंडितों के बुरे दिनों की शुरुआत
घाटी में कश्मीरी पंडितों के बुरे दिनों की शुरुआत 14 सितंबर 1989 से हुई। भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और वकील कश्मीरी पंडित, तिलक लाल तप्लू की जेकेएलएफ ने हत्या कर दी। इसके बाद जस्टिस नील कांत गंजू की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई।उस दौर के अधिकतर हिंदू नेताओं की हत्या कर दी गई। उसके बाद 300 से अधिक हिंदू-महिलाओँ और पुरुषों की आतंकियों ने हत्या की।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक कश्मीरी पंडित नर्स के साथ आतंकियों ने सामूहिक बलात्कार किया और उसके बाद मार-मार कर उसकी हत्या कर दी। घाटी में कई कश्मीरी पंडितों की बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरण किए गए। हालात बदतर हो गए। एक स्थानीय उर्दू अखबार, हिज्ब - उल - मुजाहिदीन की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की- 'सभी हिंदू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़ कर चले जाएं'। एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र, अल सफा, ने इस निष्कासन के आदेश को दोहराया। मस्जिदों में भारत एवं हिंदू विरोधी भाषण दिए जाने लगे। सभी कश्मीरियों को कहा गया की इस्लामिक ड्रेस कोड अपनाएं।
कश्मीरी मुस्लिमों को कश्मीर से अलग होने के लिए धमकी दी गई
मुस्लिम बन जाओ या तो कश्मीर छोड़कर चले जाओ
कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया, जिसमें लिखा था 'या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो। पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने टीवी पर कश्मीरी मुस्लिमों को भारत से अलग होने के लिए भड़काना शुरू कर दिया। इस सबके बीच कश्मीर से पंडित रातों -रात अपना सबकुछ छोड़ने के मजबूर हो गए।
नरसंहार में 6000 कश्मीरी पंडितों को मारा गया।
वर्ष 1989 और 1990 के बीच कश्मीर घाटी में हुए नरसंहार में 6000 कश्मीरी पंडितों को मारा गया। 750000 पंडितों को पलायन के लिए मजबूर किया गया। 1500 मंदिरों नष्ट कर दिए गए। 600 कश्मीरी पंडितों के गांवों को इस्लामी नाम दिया गया। इस नरसंहार को भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार मूकदर्शक बनकर देखती रही। आज भी नरसंहार करने और करवाने वाले खुलेआम घुम रहे हैं।
घाटी के 430 मंदिर में से मात्र 260 मंदिर अभी सुरक्षित बचे हैं
कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के अब केवल 808 परिवार
केंद्र की रिपोर्ट अनुसार कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के अब केवल 808 परिवार रह रहे हैं तथा उनके 59442 पंजीकृत प्रवासी परिवार घाटी के बाहर रह रहे हैं। कश्मीरी पंड़ितों के घाटी से पलायन से पहले वहां उनके 430 मंदिर थे। अब इनमें से मात्र 260 सुरक्षित बचे हैं जिनमें से 170 मंदिर क्षतिग्रस्त है।
शिया मुसलमानों का भी बेरहमी से नरसंहार किया गया
आज कश्मीरी पंडित अपनी पवित्र भूमि से बेदखल हो गए हैं और अब अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं। पिछले 29 वर्षों से जारी आतंकवाद ने घाटी के मूल निवासी कहे जाने वाले लाखों कश्मीरी पंडितों को निर्वासित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है। ऐसा नहीं है कि पाक अधिकृत कश्मीर और भारतीय कश्मीर से सिर्फ हिंदुओं को ही बेदखल किया गया। शिया मुसलमानों का भी बेरहमी से नरसंहार किया गया।
प्रानकोट गांव में एक कश्मीरी हिन्दू परिवार के 27 मौत के घाट उतार दिया
1993 से 2003 के बीच कश्मीर में हुए बड़े नरसंहार
डोडा नरसंहार- अगस्त 14, 1993 को बस रोककर 15 हिंदुओं की हत्या कर दी गई।
संग्रामपुर नरसंहार- मार्च 21, 1997 घर में घुसकर 7 कश्मीरी पंडितों को किडनैप कर मार डाला गया।
वंधामा नरसंहार- जनवरी 25, 1998 को हथियारबंद आतंकियों ने 4 कश्मीरी परिवार के 23 लोगों को गोलियों से भून कर मार डाला।
प्रानकोट नरसंहार- अप्रैल 17, 1998 को उधमपुर जिले के प्रानकोट गांव में एक कश्मीरी हिन्दू परिवार के 27 मौत के घाट उतार दिया था, इसमें 11 बच्चे भी शामिल थे। इस नरसंहार के बाद डर से पौनी और रियासी के 1000 हिंदुओं ने पलायन किया था।
2000 में अनंतनाग के पहलगाम में 30 अमरनाथ यात्रियों की आतंकियों ने हत्या कर दी थी।
20 मार्च 2000 चित्ती सिंघपोरा नरसंहार होला मना रहे 36 सिखों की गुरुद्वारे के सामने आतंकियों ने गोली मार कर हत्या कर दी।
2001 में डोडा में 6 हिंदुओं की आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
2001 जम्मू कश्मीर रेलवे स्टेशन नरसंहार, सेना के भेष में आतंकियों ने रेलवे स्टेशन पर गोलीबारी कर दी, इसमें 11 लोगों की मौत हो गई।
2002 में जम्मू के रघुनाथ मंदिर पर आतंकियों ने दो बार हमला किया, पहला 30 मार्च और दूसरा 24 नवंबर को। इन दोनों हमलों में 15 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई।
2002 क्वासिम नगर नरसंहार, 29 हिन्दू मजदूरों को मारडाला गया। इनमें 13 महिलाएं और एक बच्चा शामिल था।
2003 नदिमार्ग नरसंहार, पुलवामा जिले के नदिमार्ग गांव में आतंकियों ने 24 हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया था।