संपादकीय ।कड़कड़ाती ठंड में ठिठुरती जिंदगी पनाह मांगती, ओढ़ा दो कंबल मिले राहत जिंदगी परवाह मांगती...। मानवीय संवेदनाओं के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात' का पात्र हल्कू भला किसे याद नहीं होगा। शीत ऋतु की चुभन से भरी स्याह रातों में खेत की चौकीदारी करता निर्धन कृषक हल्कू ठंड से बचने के लिए मुफ़लिसी की फटी कंबल ओढ़े कभी अलाव से अपने तन को तपाता है, कभी घुटनों को गर्दन में चिमटाता है, तो कभी चिलम के कश से अपने मन को बहलाता है। लेकिन अंततः जाड़े से जंग लेती जिंदगी में हल्कू हार जाता है। सर्दी की सिरहन में खेत को आग की लपटों के हवाले कर देने वाले हल्कू के किरदार को आज भी आजादी के सात दशक बाद एक बड़ी निर्धन आबादी अपनी निजी जिंदगी में जीने को विवश है।
बहरहाल, पूरा देश हाड़ कंपाने वाली ठंड से ठिठुर रहा है। सर्द हवा ने पशु पक्षी और आम ओ खास इंसान सभी को हलकान कर रखा है। पहाड़ों पर ही नहीं, बल्कि मैदानी इलाकों में भी सर्दी का सितम जारी है। जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में तो कई जगहों पर पारा शून्य से नीचे पहुंच जाने के हालत बन रहे हैं। इस बीच मैदानी इलाकों में भी इसने गोता लगाया है। भयानक सर्दी की चपेट में आने के कारण उत्तर प्रदेश में 88 व कानपुर में 19 लोगों की मौत हो गई है। पंजाब में दो, झारखंड में आठ और बिहार में भी पांच की मौत हो गई है। उत्तर प्रदेश में शीतलहर से लोग परेशान हैं। शाम होते ही गलन बढ़ रही है। वहीं कानपुर देहात और गंगा किनारे के तीन शहर कानपुर, कन्नौज और उन्नाव में पारा शून्य पर लुढ़क गया है। मौसम विभाग के पास 1971 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर जनवरी में इतनी ठंड कभी नहीं पड़ी। इस बार औरैया में 0.6 और उरई में 2.6 डिग्री सेल्सियस न्यूनतम तापमान रहा है। मध्य प्रदेश के रीवा, शहडोल और ग्वालियर-चंबल संभाग में कोहरे से लोग परेशान हो रहे हैं। दरअसल, बढ़ती हुई ठंड पर्यावरण की अनदेखी एवं ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का नतीजा हम भुगत रहे हैं और ये चेतावनी है जो हमें संभल जाने का संकेत दे रही है। सर्दी के प्रक्रोप का सबसे अधिक प्रभाव उन बेघरों पर पड़ रहा है जिनके पास सिर छिपाने के लिए छत नहीं है। दरअसल, जीवन के सफर के लिए ये लोग कितने मोहताज हैं, इसका अंदाजा तो इनके अर्धनग्न बदन पर ओढ़े हुए फटे और मैले कंबल से हो जाता है। जैसे-जैसे ठंड का प्रकोप बढ़ने लगता है, इनकी परेशानियां विकराल रूप धारण करने लगती हैं।
ये बेखौफ और निर्भीक निर्धन लोग ठंड का पूरे जोर-शोर से मुकाबला करते हैं, लेकिन प्रकृति के निर्दय तांडव के आगे इनके हौसले मात खा जाते हैं। नतीजतन, एक समय हाड़ कंपा देने वाली ठंड कुछ वक्त के बाद इनके हाड़ से प्राण लेकर ही दम लेती है। भीषण ठंड की भेंट चढ़ने वाले ये लोग केवल खबर बनकर रह जाते हैं। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी सियासी पार्टी के नेता ने इन लोगों के जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं की मांग के पक्ष में आवाज बुलंद की हो। वरना क्या कारण है कि ठंड के सितम के आगे मरने वाले इन लोगों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, देश में सालाना लगभग आठ सौ लोगों की मौत ठंड के कारण हो जाती है। पिछले चौदह वर्षों में लगभग दस हजार से भी अधिक लोगों की जान ठंड ने ली है। इनमें पुरुषों की संख्या महिलाओं से काफी अधिक है। कारण साफ है कि महिलाओं के मुकाबले पुरुषों को रोजी-रोटी की तलाश में अधिक विस्थापित होना पड़ता है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार, देश में सर्वाधिक ठंड प्रभावित राज्य वे हैं जहां बेघरों की संख्या सर्वाधिक है। इनमें उत्तर प्रदेश प्रथम पायदान पर है, क्योंकि यह देश में सबसे अधिक बेघरों की संख्या वाले राज्यों में भी यह अव्वल है। इसके अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात में भी स्थिति बहुत चिंताजनक है। हमारे देश में बेघरों की कुल संख्या भूटान की और फिजी की जनसंख्या से लगभग दोगुनी है। ठंड में जान गंवाते इन बेघरों के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना का सुनहरा वायदा खोखला साबित हो रहा है। देश की एक बड़ी आबादी का यूं फुटपाथ पर जिंदगी गुजर-बसर करना विकास और तरक्की की पोल खोलकर रख देता है। आखिर जिंदगी और मौत की कशमकश में फंसे इन बेघरों को इनका वाजिब हक कब मिलेगा ? अगर इस दुर्दिन स्थिति का समग्र रूप से कायाकल्प हुआ होता तो आज कोई ठंड में ठिठुर कर फुटपाथों, मैदानों या पार्कों में अपने प्राण गंवाने को मजबूर नहीं हो रहा होता।
अफसोस की बात तो यह है कि ठंड को प्राकृतिक आपदा सूची में शामिल किए जाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद प्रति वर्ष शीत लहर के दिनों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लापरवाही बरती जाती है। सरकार शहरी क्षेत्रों में दस-बारह रैन बसेरों का निर्माण करने को ठंड में बचाव का इंतजाम करना कहती है। लेकिन सर्द रातों में सड़कों पर निकलकर देखा जा सकता है कि कितने लोगों को रैन बसेरों में शरण मिल पाती है और कितने खुले आसमान में किसी तरह रात काटते हैं। जरूरत है कि सरकार ठंड से ठिठुरते और मरते लोगों के प्रति संवेदनशील रवैया अपना कर अपनी जवाबदेही तय करे। देश में जब तक बेघरों के लिए आवास नहीं बन जाते, तब तक उनके लिए आश्रय स्थलों का प्रबंधन करें। यह तभी मुमकिन हो सकता है जब मोटी रजाई में भी ठंड के प्रकोप से कांप रहे हमारे सियासतदान खुले में बिना रजाई के सो रहे लोगों के प्रति संवेदना प्रकट करें और कुछ ठोस कदम उठाएं। सामाजिक प्राणी होने के नाते हम सबकी भी जिम्मेदारी बनती है कि ठंड से ठिठुरते लोगों की हरसंभव सहायता प्रदान करें। इसके लिए 'नेकी की दीवार' कार्यक्रम काफी हद तक मददगार साबित हो सकता है। ठंड के दिनों में अगर देश में जगह-जगह पर 'नेकी की दीवार' खड़ी कर हर कोई अपनी ओर से नए के अलावा सही हालत में पुराने ऊनी वस्त्र, स्वेटर, मफलर, कंबल आदि का स्वैच्छिक दान करें तो सर्दी में ठिठुरते जरूरतमंद लोगों की बड़ी मदद हो सकती है।
-देवेन्द्रराज सुथार