महिलाजगत। प्रतिबंधों के साथ जीवन का आरंभ और इसी के साथ अंत। यही त्रासदी है भारतीय समाज में स्त्री स्वतंत्रता की। धर्म ग्रंथों में शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी व दुर्गा आदि की उपमा प्राप्त कर चुकी स्त्री इक्कसवीं सदी में भी अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही है। शैक्षिक क्रांति व आर्थिक संपन्नता ने कुछ अपवाद अवश्य दिए हैं पर अपवादों से पैमाने नहीं बनते। नैतिकता व सच्चरित्रता को कायम रखने तो कभी प्रसव व बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी के कारण स्त्री को हमेशा ही एक दायरे में सीमित रखा जाता है। समय बीतता जाता है और इस लक्ष्मण रेखा रूपी दायरे को पार कर स्वतंत्रता पूर्वक अपने अधिकारों की रक्षा करते हुए जीने की चाह भी हर गुजरते वक्त के साथ क्षीण होती जाती है। फलस्वरूप स्त्री अपने आप को अपने पिता, पति व बच्चों के आसरे उन्हीं पर निर्भरशील रहते हुए, अपनी खुशियों को अंतर्मन के किसी कोने में दबाकर जीने को आज भी मजबूर है। जानी मानी लेखिका मैत्रयी पुष्पा के अनुसार ''स्त्री की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अपनी स्थितियों से बाहर न निकल पाने के कारण दस गुना अधिक मेहनत करने के बावजूद उसे बार-बार यह बताना पड़ता है कि मैं भी कुछ हूं, मेरा भी अस्तित्व है।''
हमारे समाज में आज भी पुरुषों का अधिकार एक स्वीकार्य सिद्धांत है पर दुर्भाग्यवश यह एक लैंगिक अधिकार है। स्वतंत्रता, संपत्ति व अन्याय विरोध या फिर निर्णय क्षमता लेने के अधिकारों से आज भी स्त्री कोसों दूर है। लेखिका और फिल्म निर्मात्री उमा वासुदेव इसके लिए स्त्री की परवरिश को ही जिम्मेदार मानती हैं। '' जब तक उसकी परवरिश से भेदभाव की भावना खत्म नहीं की जाएगी तब तक वह अपने आप को हीन मान कर, अपनी क्षमता व स्थिति से अनजान ही बनी रहेगी व उसे स्वतंत्रता के लिए अपनी योग्यता सिद्ध करनी ही होगी।''
हर जगह स्त्रियों की हालत एक जैसी है जिसमें पिता, पति यहां तक की दूसरी स्त्रियां तक उसके जीवन का उद्देश्य त्याग करना बताती हैं। इस तरह स्त्रियां भी मां, बहन, भाभी या सास के रूप में उसे निरंतर आगे बढ़ने के हौसले के बजाए उसे स्त्री धर्म के पालन की ही नसीहत देती है जिससे उसका आत्मबल क्षीण होता जाता है। योग्य होने के बावजूद उसकी प्रतिभा दबी-छिपी ही रह जाती है। मनोवैज्ञानिक अरूणा ब्रूटा भी इस बात से सहमत हैं। उनके मुताबिक '' पुरुष को शक्तिशाली बनाने के पीछे स्त्री का ही हाथ है।'' अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो औरत न तो कमजोर है और न ही अयोग्य। यह बात आज नहीं तो कल समाज स्वीकार कर ही लेगा।''