संपादकीय
इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच अपनी भावनाएं, विचार और यहां तक कि समस्याएं साझा करने की सुविधा मुहैया कराते हैं, पर एक आभासी दुनिया में इस व्यस्तता के साथ ही बच्चों की निजी दुनिया सिमटने लगती है।
अब हकीकत उजागर होने लगी है कि हाल के वर्षों में अमूमन हर हाथ में मौजूद स्मार्टफोन ने किस स्तर पर समाज के सहज आचार-विचार को प्रभावित किया है। लगभग चारों तरफ फैल गए सोशल मीडिया ने सामाजिक माहौल को कितना प्रभावित किया है, यह लोगों की समझ और उनके बर्ताव तक में झलकने लगा है। हालत यह है कि वे वयस्क हों, किशोर या फिर बच्चे, आज आधुनिक तकनीकी के इन संसाधनों की वजह से समाज ही नहीं, परिवार तक से कटते जा रहे हैं और इसके खमियाजे का उन्हें अहसास भी नहीं है। यह समस्या सरकारों की चिंता में भी शुमार नहीं हो पा रही है। जबकि मोबाइल फोन और कम्प्यूटर के स्क्रीन का दायरा अब जिस तरह बच्चों को भी बुरी तरह चपेट में ले रहा है, उसके संकेत और निष्कर्ष आने वाले वक्त की बेहद चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं। अमेरिका के वाशिंगटन शहर में कराए गए एक ताजा अध्ययन में पाया गया है कि बच्चों के भीतर मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर ज्यादा समय बिताने की वजह से चिंता के लक्षण बढ़ रहे हैं। बारह से सोलह साल के बच्चों और किशोरों के बीच कराए गए इस अध्ययन के मुताबिक जब किशोरों और बच्चों ने सोशल मीडिया, टीवी, मोबाइल और कम्प्यूटर में गुम रहने की अवधि कम की तो उनके भीतर चिंता के लक्षण कम होते पाए गए।
जाहिर है, पहले छोटे परदे की शक्ल में टीवी ने बच्चों के स्कूल के बाद अपने दोस्तों के साथ खेलने-कूदने का वक्त खा लिया, फिर उस परदे के हाथ में सिमटने यानी स्मार्टफोन में व्यस्तता ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इन आधुनिक तकनीकी संसाधनों या गजटों ने बच्चों और किशोरों के दिमाग को इतना ज्यादा व्यस्त कर दिया कि उनके पास जीवन के दूसरे पहलुओं पर सोचने की गुंजाइश ही खत्म हो गई। आंखों और दिमाग के सोचने-समझने की समूची प्रक्रिया स्मार्टफोन और कम्प्यूटर के स्क्रीन में इस कदर उलझ रही है कि बाकी वैसे मसले सोचने के दायरे से भी पीछे छूट रहे हैं, जो जीवन और भविष्य को गहरे प्रभावित करते हैं। नतीजतन, जब अचानक ही किसी रोजमर्रा की दूसरी बातों का सामना करना पड़ जाता है, तो बच्चे सहजता से उससे नहीं निपट पाते हैं और इस तरह उनके दिमाग में चिंता घर बनाने लगती है। यह बेवजह नहीं है कि आजकल फोन और कम्प्यूटर स्क्रीन को ही दुनिया मानने वाले बहुत सारे बच्चे आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल में तो काफी तेज-तर्रार होते हैं, लेकिन बहुत छोटी समस्या पैदा हो जाने पर भी आत्मविश्वास के मोर्चे पर खुद को कमजोर पाते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच अपनी भावनाएं, विचार और यहां तक कि समस्याएं साझा करने की सुविधा मुहैया कराते हैं, पर एक आभासी दुनिया में इस व्यस्तता के साथ ही बच्चों की निजी दुनिया सिमटने लगती है। अपने विचारों पर प्रत्यक्ष रूप से समय पर उचित प्रतिक्रिया नहीं होने की वजह से उसके भीतर निराशा के भाव का संचार होता है। अगर समय पर इसकी पहचान करके इससे निटपने की कोशिश नहीं होती है तो यह अवसाद में तब्दील हो जाता है। स्मार्टफोन और कम्प्यूटर पर व्यस्तता किशोरों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा कर रही है। विडंबना यह है कि जो स्थितियां भावी समाज की जमीन तैयार कर रही हैं, उसमें आई विकृतियां सरकारों और समूची व्यवस्था के लिए चिंता का विषय नहीं बन पा रही हैं।