संपादकीय
ऐसी ही एक रिपोर्ट उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने योगी सरकार को सौंपी है, जिसमे जबरन धर्मान्तरण जैसे गंभीर मसले पर नया कानून बनाने की सिफारिश की गयी है। आयोग की सचिव सपना त्रिपाठी ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि धर्म की स्वतंत्रता (विधेयक के मसौदे सहित) ''उत्तर प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक 2019'' नामक रिपोर्ट आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति आदित्यनाथ ने योगी जी को सौंप दी है।
उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा योगी सरकार से राज्य में नया धर्मान्तरण कानून लाए जाने की वकालत किए जाने के बाद प्रदेश की सियासत गरमा गई है। कोई इसे बीजेपी के weहिन्दुत्व के एजेंडे से जोड़कर देख रहा है तो किसी को लगता है कि योगी सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। सपा−बसपा और कांग्रेस सभी बीजेपी के खिलाफ 'झंडा−डंडा' लेकर खड़े हो गए हैं। ज्ञातव्य हो कि राज्य विधि आयोग ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को आगह किया है कि प्रदेश के मौजूदा कानूनी प्रावधान यूपी में धर्मान्तरण रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, इस लिए इस गंभीर मसले पर दस अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी नया कानून बनाना जरूरी है। धर्मांन्तरण पर नया कानून कब बनेगा, इसकी रूपरेखा क्या होगी, अभी यह सब बाते अतीत के गर्भ में छिपी हैं,लेकिन सियासी दलों में अभी से तलवारें खिंच गई हैं। मुल्ला−मौलवी, साधू−संत, पंडित, बुद्धिजीवी सब बंटे हुए नजर आ रहे हैं।
खैर, उत्तर प्रदेश की सियासत और समाज में धर्मान्तरण हमेशा से एक विवादित मुद्दा रहा है। खासकर, इसकी गंभीरता और इसको लेकर विवाद तब और बढ़ जाता है जब लालच या फिर झूठ का सहारा लेकर किसी का धर्मान्तरण कराया जाता है। कई बार देखा गया है कि समाज के दबे−कुचले और पिछड़े समाज के लोगों का अक्सर बेहतर जीवनयापन का लालच देकर धर्मान्तरण करा दिया जाता है। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस तरह के धर्मान्तरण का शिकार हिन्दू धर्म से जुड़े लोग अधिक होते हैं। इस हकीकत को भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिन्दू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था और छूआछूत भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है, जिसका दूसरे समाज के लोग फायदा उठाते हैं। वर्ण व्यवस्था और छूआछूत के चलते हिन्दू समाज के दबे−कुचले लोगों का जो धर्म परिर्वतन कराया जाता है, उसको शह देने में इसाई मिशनरियों से जुड़े लोगों की भूमिका प्रमुख रहती है। इसी तरह से हिन्दू समाज की युवा लड़कियों को एक धर्म विशेष के लड़को द्वारा प्रेम जाल में फंसाने के साथ उनका बहला−फुसला कर भी धर्म परिर्वतन कराये जाने की खबरें आती रहती है। ऐसे मामले कहने को तो प्रेम विवाह से जुड़े बताए जाते हैं, लेकिन इसके पीछे कहीं न कहीं 'लव जेहाद' का एजेंडा भी छिपा रहता है। एक तरफ कमजोर कानून के चलते इस तरह के धर्मान्तरण पर लगाम नहीं लग पाती है तो दूसरी तरफ तुष्टिकरण की सियासत के चलते इस तरह के धर्मान्तरण को समय−सयम पर राजनैतिक संरक्षण भी मिलता रहता है। वहीं हिन्दूवादी संगठन ही नहीं आरएसएस और भाजपा भी ऐसे धर्मान्तरण के खिलाफ लगातार सख्त कानून लाए जाने की वकालत करते रहे हैं, अब जबकि प्रदेश में भाजपा की सरकार है और योगी जी मुख्यमंत्री हैं तब इस बात की संभावना काफी बढ़ गई है कि प्रदेश में जल्द ही धर्मान्तरण के खिलाफ सख्त कानून बन सकता है, इसको लेकर पहल भी हो गई है।
ऐसी ही एक रिपोर्ट उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने योगी सरकार को सौंपी है, जिसमे जबरन धर्मान्तरण जैसे गंभीर मसले पर नया कानून बनाने की सिफारिश की गयी है। आयोग की सचिव सपना त्रिपाठी ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि धर्म की स्वतंत्रता (विधेयक के मसौदे सहित) 'उत्तर प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक 2019' नामक रिपोर्ट आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति आदित्यनाथ ने योगी जी को सौंप दी है। आजादी के पहले और बाद, देश और पड़ोसी देशों मसलन नेपाल, म्यामां, भूटान, श्रीलंका और पाकिस्तान के कानूनों के अध्ययन के बाद रिपोर्ट को राज्य सरकार के विचारार्थ भेजा गया है। रिपोर्ट में कहा गया है, आयोग का मत है कि मौजूदा कानूनी प्रावधान धर्मान्तरण रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इस गंभीर मसले पर दस अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश को भी नये कानून की आवश्यकता है। रिपोर्ट 268 पृष्ठ की है। इसमें 'धर्म क्या है, क्या इसकी व्याख्या की जा सकती है, जबरन धर्मान्तरण पर हाल की अखबारी खबरें, पड़ोसी देशों के धर्मान्तरण विरोधी कानून' जैसे विषय शामिल किये गये हैं। रिपोर्ट में धर्म से जुड़े मौजूदा कानूनी प्रावधानों और नये कानून की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। आयोग ने मसौदा विधेयक के साथ अपनी सिफारिशें सौंपी हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि मध्य प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में जबरन धर्मान्तरण को प्रतिबंधित करने के विशेष कानून बनाये गये हैं।
गौरतलब हो, धर्मान्तरण की घटनाओं से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने भी 1995 में महिलाओं के हितों की रक्षा और धर्म का दुरुपयोग रोकने के इरादे से धर्मान्तरण कानून बनाने की संभावना तलाशने के लिए एक समिति गठित करने पर विचार का भी सुझाव दिया था। कोर्ट का मत था कि इस कानून में यह प्रस्ताव भी किया जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता है तो वह अपनी पहली पत्नी को विधिवत तलाक दिए बगैर दूसरी शादी नहीं कर सकेगा। यह प्रावधान प्रत्येक नागरिक पर लागू होना चाहिए।
सबसे दुख की बात यह है कि एक तरफ देश के विभिन्न हिस्सों से समय−समय पर धर्मान्तरण रोकने के लिए उचित कानून बनाने की आवाज उठती रहती है। संसद में इसके लिए विधेयक भी पेश किए गए, लेकिन आज तक धर्मान्तरण के खिलाफ कोई भी कानून की शक्ल नहीं ले सका है। बताते चलें संसद में पहली बार 1954 में भारतीय धर्मान्तरण (विनियमन एवं पंजीकरण) विधेयक, 1954 पेश किया गया, लेकिन लोकसभा में बहुमत के अभाव में यह गिर गया। इसके बाद 1960 और 1979 में भी इसके असफल प्रयास हुए थे। हमारे संविधान का अनुच्छेद 25 (1) नागरिकों को अपने अंतकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान अधिकार प्रदान करता है। परंतु इसके साथ ही अनुच्छेद 25(2) किसी ऐसे मौजूदा कानून के प्रवर्तन पर असर नहीं डालेगा और न ही राज्य को ऐसा कोई कानून बनाने से रोकेगा जो धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलापों को विनियमित या निर्बंधन करता हो।
बात करीब पांच दशक पुरानी है जब ओडि़सा और मध्य प्रदेश सरकार ने धर्मान्तरण के खिलाफ कानून बनाया तो ओडिशा में 1967 में बने ओडिशा धर्म स्वतंत्रता कानून और मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्रता कानून, 1968 की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। मगर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एएन रे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 17 जनवरी, 1977 को इन कानूनों को वैध ठहराया था। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एमएच बेग, न्यायमूर्ति आरएस सरकारिया, न्यायमूर्ति पीएन सिंघल और न्यायमूर्ति जसवंत सिंह शामिल थे। सर्वोच्च अदालत ने अन्य फैसलों का जिक्र करते हुए कहा था कि अनुच्छेद 25 और 26 के आलोक में निश्चित ही लोक व्यवस्था के हित में इन अनुच्छेद में दिए गए अधिकारों को प्रतिबंधित किया जा सकता है क्योंकि यदि कोई बात व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि समुदाय के जीवन को बाधित करती है तो इसे लोक व्यवस्था में गड़बड़ी ही माना जाएगा। यदि जबरन धर्मान्तरण की वजह से सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के प्रयास किए जाते हैं तो इससे लोक व्यवस्था में अशांति पैदा होने की आशंका होती है।
संविधान पीठ ने अपनी व्यवस्था में कहा था कि संविधान का अनुच्छेद सभी व्यक्तियों को लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के दायरे में धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता प्रदान करता है। परंतु यह अनुच्छेद किसी व्यक्ति को अपने धर्म में शामिल करने का अधिकार नहीं देता है बल्कि यह अपने ही धर्म के प्रचार का अधिकार देता है। अनुच्छेद 25 किसी एक धर्म के बारे में नहीं बल्कि सभी धर्मों को गारंटी प्रदान करता है। दोनों ही राज्यों के कानून जबरन धर्म परिवर्तन निषेध करते हैं और इसी के संदर्भ में कानून व्यवस्था बनाए रखने की बात है, क्योंकि यदि जबरन धर्मान्तरण को निषेध नहीं किया जाता है तो इससे राज्यों में कानून व्यवस्था की समस्या खड़ी हो जाएगी। संविधान पीठ की व्यवस्था के अनुसार यह ध्यान रखना होगा कि अनुच्छेद 25(1) प्रत्येक नागरिक को और सिर्फ किसी एक विशेष धर्म के मानने वालों को अंतरूकरण की स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता है और इस तरह यह किसी एक व्यक्ति के धर्म में दूसरे व्यक्ति के परिवर्तन का मौलिक अधिकार नहीं देता है। यदि एक व्यक्ति जानबूझकर किसी व्यक्ति को अपने धर्म में शामिल करता है तो इससे सभी नागरिकों को संविधान में प्रदत्त अंतरूकरण की स्वतंत्रता गारंटी पर अतिक्रमण होगा।
सबसे दुख की बात यह है कि संविधान के प्रावधान और सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के आलोक में यह बात साफ है कि राज्यों को जबरन धर्मान्तरण को रोकने के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश (जहां धर्मान्तरण की खबरें सबसे ज्यादा चर्चा में रहती हैं), राजस्थान, केरल और बिहार जैसे कई राज्यों ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। शायद यही वजह है कि धर्मान्तरण के बारे में अधिकतर वे राज्य ही चर्चा में आते हैं जहां इन पर प्रतिबंध लगाने के लिए कोई कानून नहीं है। ऐसी स्थित मिें इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है कि लव जिहाद या जबरन धर्मान्तरण जैसी घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए राज्य सरकारें उचित कदम उठाने में क्यों हिचकिचाती हैं ? अ क्यों इस तरह की घटनाओं के प्रति शुरू में आंखें फेर ली जाती हैं ? जबकि समस्या गंभीर हो जाती है तो आरोप−प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है।
यहां यह बताना जरूरी है कि अपने देश में दो वयस्क, भले ही अलग−अलग धर्म और जाति के हों, यदि विवाह करना चाहते हैं तो वे विशेष विवाह कानून, 1954 के तहत ऐसा कर सकते हैं। यह विवाह अदालत में होता है और इसमें कोई पंडित, मौलवी, पादरी या ग्रंथी शामिल नहीं होता है। इस कानून के तहत किसी को धर्म बदलने की जरूरत नहीं होती है और विवाह के बाद दोनों का अपना−अपना धर्म बरकरार रहता है। साथ ही शादी के बाद पत्नी को कई कानूनी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। हां, यदि विवाह करने वाले हिंदू हैं तो उनमें नजदीकी रिश्तेदारी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह प्रतिबंधित है। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र की मोदी सरकार के साथ−साथ ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भी भी यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगी कि विवाह के लिए धर्म परिवर्तन कराने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगे।ऐसा तब ही संभव है जबकि योगी सरकार द्वारा राज्य विधि आयोग की सिफारिशों को मान लेता है।