संपादकीय
मुसलमानों को यह खुली आंख से देखना होगा और उदार मन से सोचना और समझना ही होगा कि कैसे उनका रिश्ता मंगोल और तुर्क से लेकर आईएस, तालिबान, पाकिस्तान, याकूब मेनन, अफजल गुरु के साथ सयुंक्त किया गया है।
अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय भारत के हिन्दू और मुसलमानों के लिए एक ऐसा अवसर है जहां से वे राम और इमामे हिन्द के समेकन और अद्वैत की उद्घोषणा करके पूरी दुनिया में एक भारत श्रेष्ठ भारत के सन्देश को सुस्थापित कर सकते हैं। क्षुद्र सियासी निहितार्थ के लिए जो कुछ इस मुल्क में पिछले 70 साल से जारी है उससे आगे का सफर अब एक भारत के विचार में ही निहित है। यहां अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की प्रायोजित राजनीति का भी पिंडदान करने का बेहतरीन अवसर हिन्दू और मुसलमान दोनों के पास है। जिस अद्भुत संयम का परिचय भारत के 130 करोड़ लोगों ने अयोध्या निर्णय पर प्रदर्शित किया है वह 'भारतीयता' के संकल्प की सिद्धि ही है इसीलिये समेकित रूप से भारत में इसे न हार के रूप में लिया गया न जीत के रूप में। जिस वामपंथी विचार ने भारत को उसकी मौलिक निधि और सांस्कृतिक अस्मिता से वंचित रहने पर विवश किया आज उस सुविधा परस्त वाम विचार के अस्ताचल ने कुछ विमर्श के बिंदु भी निर्धारित कर दिए हैं। सबसे बड़ी जिम्मेदारी आज मुल्क के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की है जिन्हें नई सरकार के उद्घोष 'सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास' को लेकर अपनी वचनबद्धता को आगे भी साबित करना है, ठीक वैसे ही जैसे उनके सख्त निर्देश का अमल अयोध्या के मामले में हुआ।
हमें इस बात पर सभी कड़वाहटों को भुला कर यह समझना ही होगा कि भारत के मुसलमान एक सुविचारित, सुगठित और सुनियोजित षड्यंत्र के तहत लोकजीवन में संदिग्ध बनाकर रखे और जाहिर किये गए हैं क्योंकि अल्पसंख्यकवाद की राजनीति से इस मुल्क में 60 साल तक कुछ लोगों की सियासी धमक इसी विभेद से बनती रही है। वामपंथी विचारधारा ने इस देश की स्वाभाविक शासक पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व को पूरी तरह से अपने शिकंजे में कसकर रखा यह दीगर बात है कि स्वयं नेहरु इस जमात के जनक रहे हैं।
भारत में मुसलमानों को डराने और उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में अलग से स्थापित किया जाना ही सम्प्रदायवाद की बुनियाद है। यही काम इस मुल्क में वाम विचारकों ने सफलतापूर्वक किया है। मुसलमानों को यह खुली आंख से देखना होगा और उदार मन से सोचना और समझना ही होगा कि कैसे उनका रिश्ता मंगोल और तुर्क से लेकर आईएस, तालिबान, पाकिस्तान, याकूब मेनन, अफजल गुरु के साथ सयुंक्त किया गया है। भारत में इस्लाम के प्रतीक बुल्ले शाह, अमीर खुसरो, रसखान से लेकर अब्दुल हमीद, एपीजे कलाम क्यों नहीं बन सके हैं ? हमारे मुस्लिम भाइयों को गहराई से सोचना चाहिये कि जिस समाज में नक्काशी, बुनाई, कढ़ाई, शिल्प, कारीगरी, गायन, अभिनय से लेकर विभिन्न कलाओं की निपुणता है उसे वक्त के साथ की तालीम से महरूम क्यों और किसने किया ? जो लोग अल्पसंख्यक का अहसास कराते रहे वे कभी इस जमात की आधुनिक शिक्षा और हुनर के फिक्रमंद क्यों नहीं रहे ? अगर इन सवालों का जवाब हर मुसलमान अपने आप से भी पूछना शुरू कर दे तो भारत में अलगाव की बात ही खत्म हो चुकी होगी। जिस उदार मन से हर मुसलमान ने अयोध्या के फैसले को स्वीकार किया है वह बताता है कि भारत अंतस से एक है।
इसी अंतस में राम और इमामे हिन्द अद्वैत के रूप में खड़े नजर आते हैं। यही भाव हाशिम अंसारी और महंत जी को एक ही रिक्शे की सवारी कर फैजाबाद की अदालत तक ले जाता था। लेकिन समस्या की जड़ असल में कहीं और छिपी है जो आजमगढ़ के संजरपुर में सियासी लोगों को आने और फिर आतंकियों के घर बैठकर मातमपुर्सी की राह दिखाता है। लेकिन इसी आजमगढ़ में ब्रिगेडियर मो. उस्मान को याद करने की मनाही करता है जिसने आजाद भारत का पहला गैलेंट्री अवार्ड हासिल किया। क्योंकि ब्रिगेडियर उस्मान से अल्पसंख्यकवाद को कोई फायदा नहीं होता है, वह भारत माता की रक्षा करने का काम कर रहा था। 1965 की लड़ाई में पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने वाले कैप्टन अब्दुल हमीद के बारे में मेरे मुल्क के मुसलमान कितना जानते हैं ?
औरंगजेब से हम दसवीं कक्षा तक आते-आते बखूबी परिचित हो जाते हैं, उसके युद्ध कौशल, प्रशासन से जुड़ी महानता के बीच उसके क्रूर और धर्मांध चेहरे को हमें कभी नहीं बताया जाता। कभी इतिहास लिखने वालों ने नहीं बताया कि "आज होली खेलूंगी मैं रसिया कह बिसिमिल्लाह' लिखने वाले वुल्ले शाह मुसलमान थे।
"छाप तिलक सब छोड़ी तुझसे नैन मिलाकर" खुसरो ने किस चेतना के साथ लिखा था ?, गजनी, बाबर, अकबर, औरंगजेब सब हैं स्कूली किताबों में पर जिस दारा शिकोह ने वेदों को फ़ारसी और अरबी में अनुवादित किया उसका जिक्र तक करने का साहस क्यों 70 साल में नहीं हुआ ? क्यों गीता साथ रखने वाले भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम की अंतिम यात्रा में रामेश्वरम जाने की जगह देश के बड़े सियासी वर्ग ने अफजल की फांसी रुकवाने के लिये दिल्ली में प्रदर्शन करना जरूरी समझा ? अमरनाथ की छड़ी मुबारक रस्म में मुस्लिम भागीदारी हो या फिर अयोध्या में मंदिरों के महंत और मस्जिदों के मौलवियों के बीच का सौहार्द। भारत में कभी इस मूलभूत सामाजिक साम्य को नजीर बनाने का काम सियासी दलों ने नहीं किया। असल में पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही जिस धार्मिक विभाजन की अवधारणा ने जन्म लिया था उसे नया विस्तार देती सियासी सोच ने भारत के लोकजीवन से भारतीयता के तत्व को ही तिरोहित कर दिया।
मुसलमानों की पीठ पर बेताल की तरह लदे वामपंथी नेताओं ने उनकी अशिक्षा और पिछड़ेपन का फायदा उठाकर चंगेज खान, तैमूर लंग और बाबर जैसे लुटेरों के साथ उनके रिश्तों को कब चतुराई से कायम कर दिया यह न मुसलमानों को पता चला न हिंदुओं को। सुप्रीम कोर्ट ने जब अयोध्या में राम के अस्तित्व को प्रमाणित कर दिया तो इन मिथ्या मिथक गढ़ने वाली सत्ता पोषित जमात की जमीन जलजले की तरह हिल गई है। निर्णय के बाद देश में जिस सौहार्द और स्वीकार्यता का माहौल बना है उसने तो सेकुलर अल्पसंख्यकवादियों को मानो अरब सागर में डुबो दिया है। वस्तुतः सच यही है कि भारत के हर नागरिक के अवचेतन में राम की मौजूदगी है। राम और इमामे हिन्द में कोई फ़र्क है ही नहीं। भला अपने समकालीन 10 फीसदी लोगों का तलवार के जरिये कत्लेआम करने वाली मंगोल विरासत से भारत का क्या रिश्ता हो सकता है ?
ऐतिहासिक तथ्य है कि मंगोल जिसे भारत में मुगल कहा गया, ने करीब 9 करोड़ लोगों को अपने विजय अभियान में मौत के घाट उतारा था। यह सब किसी परमाणु बम या मिसाइल से नहीं बल्कि सिर्फ तलवार से किया गया। क्या भारत के हजारों साल पुराने लोक जीवन में इस तरह की हिंसा का कोई अवशेष हमें मिलता है ? राम का लोकजीवन आज से 6 हजार साल पहले का माना जाता है और अगर आज भी वह भारत सहित दुनियाभर भर में करोड़ों लोगों के आदर्श हैं तो समझा जा सकता है कि भारतीय प्रायद्वीप में मंगोलों के साथ कम से कम पिछले 6 हजार साल से तो कोई सांस्कृतिक रिश्ता हो ही नहीं सकता है। इसी बिना पर राम सबके हैं और अयोध्या के साथ बाबर जैसे आताताई के रिश्ते को भारत के मुसलमान को भी स्वीकृति नहीं देनी चाहिये।
असल में उपासना पद्धति केवल भारत में ही नहीं बदली है कम्बोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मॉरीशस, त्रिनिदाद, म्यांमार जैसे अनेक मुल्कों में आज हिन्दू मान-बिन्दुओं की प्रभावी उपस्थिति इसलिये है क्योंकि वहां के इतिहासकारों ने, राजनीतिक दलों ने कभी अपनी सांस्कृतिक विरासत को तिरोहित नहीं होने दिया है। विदेश मंत्री के रूप में जब अटल जी कम्बोडिया में गए थे तो वहां रामायण का मंचन देख उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए वहां के राष्ट्रपति ने गर्व से बताया कि राम हमारे पूर्वज हैं। हमने सिर्फ उपासना पद्धति बदली है पुरखे नहीं। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में सबसे बड़ा होटल कनिष्क है और जिस लुटेरे गजनी को हम जानते हैं उसका वहां के इतिहास में कोई नामोनिशान नहीं है। गजनी नामक जगह पर धूल के गुबार उड़ते रहते हैं कोई मजार तक उस लुटेरे ग़जनी की नहीं है जो सोमनाथ के मंदिर तक लूट मचाता आया था।
बुनियादी समस्या यही है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी एक तरह से अधिमान्य किया है भारत में भारतभूमि के मान-बिन्दुओं को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिये। यह काम अल्पसंख्यक वर्ग को उदार मन से करना होगा क्योंकि सबको अपने अन्तःकरण की आजादी है पर सांस्कृतिक विरासत की कीमत पर शायद कहीं भी नहीं। गौरी, ग़जनी, बाबर, अफजल, याकूब, ओसामा नहीं बुल्ले शाह, खुसरो, रहीम, कलाम, उस्मानी, अब्दुल हमीद हैं हमारे गौरव। राम सबको समाहित करते हैं और राम ही हमारी मौलिक पहचान हैं।